वर्तमान समय में नाथद्वारा में स्थापित श्रीनाथजी का स्वरुप (प्रतिमा) पवित्र व्रज भूमि में स्थित पावन श्री गोवर्धन पर्वत पर प्रकट हुआ था। श्रीनाथजी अपने भक्तों की दैवीय आत्माओं को जागृत करने में सहायता करने के लिए यहां पर प्रकट हुए थे।
वर्तमान समय में यह पवित्र गिरिराज गोवर्धन मथुरा से १४ मील की दूरी पर स्थित अन्योर गांव के पूर्व में स्थित है। श्रीनाथजी के रुप में श्री राधाकृष्ण का यह स्वरुप 5236 वर्ष पूर्व के उनके मूल स्वरुप की निरंतरता है, जब उन्होंने अपने प्रिय व्रजवासियों की रक्षा के लिए इस गिरिराज को उठाया था।
(श्री कृष्ण का जन्म 19/20 जुलाई, 3228 ईसा पूर्व में अपरान्ह 12.39 बजे रोहिणी नक्षत्र, श्रावण वद अठम में हुआ था; {इस आंकड़े को धर्मग्रंथों हरिवंश, भाग-1, अध्याय 52; भगवद्जी, दशम् स्कंद, तृतीय अध्याय, विष्णु पुराण, प्रथम अध्याय, 26वां श्लोक, पंचम अंश})
द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने व्रज भूमि में स्थित मथुरा में अपनी सभी दिव्य आत्माओं के साथ जन्म लिया था। ये दिव्य आत्माएं विभिन्न स्वरुपों अर्थात् गोपियों, दैवीय माता-पिता, दैवीय ग्वालों इत्यादि, में इनके साथ आयी थीं।
सभी देवताओं, देवियों, ऋषियों, मुनियों, उच्च दैवीय आत्माओं एवं स्वयं भारत भूमि के अनुरोध का सम्मान करते हुए श्री कृष्ण सभी पाप शक्तियों के संहार के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। उनके शाश्वत दिव्य प्रेम श्री राधा का दो वर्ष पूर्ण रावल, मथुरा में जन्म हुआ था। वह उनके साथ भक्ति में भाव का समावेश करने तथा प्रेम व भक्ति में दैवीयता को प्रदर्शित करने के लिए उनके साथ आयी थीं, इसे दैवीय प्रेम की चेतना कहा जाता है।
यद्यपि श्री कृष्ण एवं राधा शाश्वत रुप से एक ही आत्मा हैं, परंतु ये दो आत्माओं व दो शरीर के रुप में 5236 वर्ष पूर्व द्वापर युग में प्रकट हुयी थीं।
उस समयावधि में अनेक दैवीय लीलाओं का दर्शन हुआ, जिसे श्री कृष्ण ने दैवीय भाव से रचा था। इनकी प्रसिद्ध दैवीय लीलाओं में से एक लीला गिरिराज गोवर्धन को सात दिनों तक अपने बाएं हाथ की कनिष्ठिका पर सात दिनो तक उठा कर रखना सम्मिलित है। यह लीला इस बात को दर्शाती है कि किस प्रकार श्री कृष्ण ने इंद्र देव के अहंकार को नष्ट कर दिया एवं विश्व के समक्ष यह प्रदर्शित किया कि वह सर्वोच्च शक्तिमान हैं।
श्री कृष्ण का यह स्वरुप गोवर्धन लीला के समापन के पश्चात वापस गिरिराजजी पर स्थापित हो गया। इस प्रसिद्ध वार्ता को हिंदुओं के सभी पवित्र पुस्तकों में वर्णित किया गया है। कलियुग में श्रीनाथजी के प्रकट होने की भविष्यवाणी का विवरण पवित्र ग्रंथ गर्ग संहिता के गिरिराज खंड में पहले ही प्रस्तुत किया गया है।
‘‘कलियुग के 4800 वर्षों के बाद सभी लोग यह देखेंगे कि श्री कृष्ण गोवर्धन पर्वत की कंदरा से निकलेंगे एवं श्रृंगार मंडल पर अपने लोकोत्तर स्वरुप का प्रदर्शन करेंगे। सभी भक्त कृष्ण के इस स्वरुप को श्रीनाथ पुकारेंगे। वह सदैव ही लीला में लीन रहेंगे एवं श्री गोवर्धन पर क्रीड़ा करेंगे।’’
श्रीनाथजी श्री कृष्ण का वही स्वरुप है, जिसने द्वापर युग में इस लीला को मूर्त रुप प्रदान किया था। वह एक बार पुनः १४वीं शताब्दी, 1409 ईसवी में उसी गिरिराज से प्रकट हुए थे, जिसे हम आज श्रीनाथजी स्वरुप के रुप में जानते हैं।
श्री कृष्ण के सभी स्वरुपों को इसमें पाया गया है। इसमें ललन (शिशु) के रुप में बाल स्वरुप एवं श्रीनाथजी के रुप में श्री राधाकृष्ण का मिश्रित स्वरुप उल्लेखनीय है।
इन्हें इनके भक्त प्यार से देव दमन, इंद्र दमन, नाग दमन भी कहते हैं। व्रजवासियों में प्रचलित इनका पूरा नाम ‘श्री गोवर्धननाथजी’ था।
प्रेम वत्सल भक्त इन्हें ‘श्रीजी बाबा’ भी कहते हैं।
(इस पुस्तक में प्रस्तुत पूर्ण विवरण व्रज भाषा में रचित मूल रचना प्रगत्य वार्ता से अनुदित है। मैंने इस पोस्ट के लिए प्रासंगिक अनुभागों को ग्रहण किया है। इसमें प्रस्तुत कुछ विवरण पवित्र ग्रंथ गर्ग संहिता से लिए गए हैं)
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