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श्रीनाथजी का 1409 ईसवी में गिरिराज गोवर्धन से प्रकटीकरण

श्रीनाथजी के रुप में श्रीराधाकृष्ण के मूल स्वरुप का प्रकटीकरण, प्रारंभिक रुप से उनकी अलौकिक भुजा का प्रकटीकरण, 1409 ईसवी (संवत 1466) में श्रावण वद त्रितीया को श्रवण नक्षत्र में रविवार को हुआ था।


ShreeNathji Pragatya sthal on Shri Govardhan


जब इनका प्रकटीकरण गिरिराज गोवर्धन से हुआ तब श्रीनाथजी की बायीं भुजा पर श्री राधाकृष्ण के सभी मांगलिक चिन्ह भी प्रकट हुए, इसमें श्री और स्वास्तिक का मांगलिक चिन्ह सम्मिलित है। श्री राधाकृष्ण की मूल शक्तियां हमें आशीर्वाद देने के लिए लगभग 5236 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद गिरिराज गोवर्धन से दृष्टिगत हुयीं। यह उनके नए विलयित स्वरुप में दिव्य श्रीनाथजी के स्वरुप में हमारे सामने आयीं। एक भक्त, जिसकी श्रीराधाकृष्ण से निकटता स्थापित करने की उत्कट अभिलाषा है वह श्रीनाथजी की सेवा कर सकता है और चमत्कारिक परिणाम प्राप्त कर सकता है।


श्रीनाथजी श्रीराधाकृष्ण के पूर्ण स्वरुप हैं। वह श्रीराधा, श्रीकृष्ण एवं उनके दोनो ललन स्वरुप को स्वयं में संजोए हुए हैं। श्रीनाथजी ‘उनकी’ जीवंत दैवीय शक्ति हैं, जो हमारे जगत में आज भी निवास करते हैं।


ShreeNathji is the merged swarup of Shree RadhaKrishn


।। श्री गोवर्धन धारो जयति।।

।। श्री गोवर्धननाथस्योद्व वार्ता।।


अर्थात्


।। श्रीनाथजी प्रगट्य वार्ता ।।

(श्रीनाथजी के प्रकटीकरण की कथा)


अब श्री गोवर्धन नाथजी की विभिन्न कहानियों एवं उनके प्रकटीकरण की लीलाएं श्री गोकुलनाथजी (श्री वल्लभाचार्यजी के प्रपौत्र) द्वारा वर्णित की जाएंगी, इसका उद्देश्य इस पृथ्वी पर भक्तों का उत्थान करना है।

श्री गोवर्धननाथजी अपने अनेक भक्तों के साथ गिरिराजी के केन्द्र में शाश्वत रुप में चिरकाल के लिए निवास कर रहे हैं। श्री आचार्यजी महाप्रभु श्रीनाथजी की सेवा के लिए वहां पर सदैव ही शाश्वत स्वरुप में निवास करते हैं। श्री आचार्यजी ने महाप्रभु भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दैवीय आदेश के साथ दिव्य आत्माओं के उत्थान के लिए जन्म लिया।

इसी अवधि में श्री गोवर्धननाथजी उनकी लीला को पूर्ण करने की सभी सामग्रियों के साथ व्रज मंडल में गिरिराज जी से प्रकट हुए।

इस लीला का साक्ष्य एवं विवरण ‘गर्ग संहिता’ नामक ग्रंथ में उपलब्ध है।


।।ऊर्ध्‍व भुजा को प्रगट्य।।

(ऊर्ध्‍व भुजा का प्रकटीकरण)


एक व्रजवासी गिरिराज पर अपनी गाय की खोज में गया, जहां पर उसे सबसे पहले इस अलौकिक भुजा का दर्शन हुआ। उसे बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि इसके पहले उसे ऐसा दर्शन कभी नहीं हुआ था। इसलिए वह कुछ अन्य व्रजवासियों को उसका चमत्कार दिखाने के लिए वहां पर ले गया। उन सभी लोगों को दर्शन हुआ और उन लोगों ने यह अनुमान लगाया कि यह कोई देवता है जो गिरिराज से प्रकट हुआ है।

एक वृद्ध व्रजवासी ने यह विचार व्यक्त किया कि यह निश्चित रुप से श्रीकृष्ण का कोई स्वरुप है, जिन्होंने 7 दिनो तक श्री गिरिराज को उठाया था। . एक बार जब वर्षा बंद हो गयी, तब गिरिराजजी वापस पृथ्वी में चले गए। सभी व्रजवासियों ने इस भुजा का पूजन किया और उन्हें यह विश्वास हो गया यह निश्चित रुप से उसी समय की भुजा है। प्रभु श्रीकृष्ण नीचे के केंद्र (खोह) में विश्राम करते हैं और उन्होंने उसी ऊध्र्व भुजा का एक बार पुनः दर्शन कराया है। उन लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला कि उन्हें इसका उत्खनन करने का प्रयास करने के विषय में नहीं सोचना चाहिए और न ही उनके दैवीय स्वरुप को निकालने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि उनकी जब भी इच्छा होती है, तब वह हमें पूर्ण दर्शन प्रदान करते हैं। तब तक आइए हम ऊध्र्व भुजा की उपासना करें। (इस कथा का विस्तृत विवरण दुग्धपान चरित्र में पाया गया है)

व्रजवासियों ने विचार-विमर्श करके यह निर्णय लिया कि उस अलौकिक भुजा को दुग्ध से स्नान करा कर उस पर अक्षत, चंदन, पुष्प और तुलसी चढ़ाना चाहिए तथा उन्हें दही व फल का भोग लगाया गया। यह दर्शन नाग पंचमी के दिन हुआ था, इसलिए प्रत्येक नाग पंचमी के अवसर पर कुछ व्रजवासी एकत्रित होकर मेले का आयोजन करते हैं। जब भी वे लोग किसी इच्छा की पूर्ति की कामना करते थे, तब वे यहां पर आकर उनको दुग्ध से स्नान कराते थे। इससे व्रजवासियों की सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती थी। 1478 ईसवी तक लगभग 69 वर्षों तक व्रजवासियों ने केवल दैवीय भुजा का पूजन किया। (संवत 1535)


।। मुखारविंद प्रगट्य ।।

।। श्रीनाथजी के कमल आनन का प्रगटीकरण।।


1478 ईसवी (संवत 1535) में वैशाख वद गियारस के दिन शतभिषा नक्षत्र में गुरुवार के दिन अभिजीत मूहूर्त दोपहर 12.40 से 1.00 बजे के बीच, के दौरान जब उनका मुखारविंद प्रकट हुआ, उस समय उन्होंने गांव के वरदानयुक्त लोगों को अपना दिव्य दर्शन दिया। श्रीकृष्ण की इच्छा के अनुसार उसी दिन परंतु अभिजीत मूहूर्त अर्थात् रात्रि 12.40 से 1.00 बजे के बीच श्रीवल्लभ आचार्य भी चंपारण नामक एक अन्य गांव में आग के एक गोले में प्रकट हुए। यह गांव वहां से कुछ दूरी पर स्थित है। श्री वल्लभाचार्य उस अवधि के दिव्य गुरु थे। इस अवधि के दौरान गिरिराज गोवर्धन पर सभी मूल ग्वाल-बाल, जो वहां पर उनके मूल अवतार श्रीराधाकृष्ण के साथ उपस्थित थे, ने भी श्रीकृष्ण की लीला को पूर्णता प्रदान करने के लिए इस पृथ्वी पर जन्म लिया। इसमें उनका अष्टचाप कवि भी शामिल है। (इसका विस्तृत विवरण बाद में किया गया है)


।।दुग्धपान चरित्र।।

।।श्रीनाथजी की दुग्धपान वार्ता।।


अन्योर में माणिकचंद एवं सद्दू पांडे दो व्रजवासी थे, जिनके पास अनेक गायें थीं। उनमें से धूमर नाम की एक गाय नंद बाबा के गो समूह वंश की प्रत्यक्ष स्वरुप थीं। नंदराय बाबा श्रीकृष्ण के मूल अवतार में पिता थे।

यह वार्ता इस बात का विवरण प्रस्तुत करती है कि उसने किस प्रकार श्री मुख पर प्रत्यक्ष रुप से दुग्ध अभिषेक (दुग्ध चढ़ा कर पूजा करना) किया था। यह दुग्ध पान लगभग 6 माह तक जारी रहा। प्रत्येक सुबह ब्रम्ह मूहूर्त में धूमर अपने झुंड से अलग हो जाती थी और श्री गिरिराज जी पर चढ़ कर इस अलौकिक भुजा पर दुग्ध चढ़ाती थी। शीघ्र ही व्रजवासी ने पाया कि यह गाय अब नित्य बहुत कम दूध देती है, इसलिए उसने माणिक चंद के साथ धूमर (पवित्र गाय) का पीछा किया और इस दृश्य को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। उन्होंने देखा कि धूमर खड़ी है और उसका दूध पर्वत की एक विशेष शिला पर गिर रहा है। इस दैवीय लीला को देख कर दोनो ही आश्चर्य में पड़ गए। ये दोनो वरदान युक्त थे और उन्हें श्रीकृष्ण की अलौकिक भुजा (दिव्य भुजा) का दर्शन प्राप्त हुआ।


Dhumer flowing milk on ShreeNathji


।।सद्दू पांडे प्रति साक्षात् आज्ञा।।

।।सद्दू पांडे को प्रत्यक्ष आदेश।।


इस दिव्य दर्शन से उन्हें काफी आनंद प्राप्त हुआ। उन्हें श्रीजी का साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ। श्री गोवर्धन नाथजी ने प्रत्यक्ष आदेश दिया, ‘‘मैं श्रीगिरिराज पर निवास करता हूं। तुम मुझे देव दमन, इंद्र दमन, नाग दमन कह सकते हो। 7 दिनो तक मैंने व्रजवासी की रक्षा की है, उनके अहंकार को नष्ट किया है।’’

“‘‘मेरी यह गाय नंद वंश की है और मैं इसका दूध प्रतिदिन ग्रहण करता आ रहा हूं, इसलिए इसके दूध को मेरे पास रोज सुबह भेजो।’’

सद्दू पांडे ने साक्षात दंडवत किया और कहा, ‘‘बेशक मैं ऐसा ही करुंगा।’’

Saddu Pande and Bhavai have first darshans of ShreeNathji


।।सद्दू पांडे घर आए वृत्तांत कहियो।।

।।सद्दू पांडे घर आए और इस कहानी को बताया।।


इस घटना के बाद सद्दू पांडे घर आए और अपनी पत्नी भवई और अपनी पुत्री नारो को इस घटना के विषय में बताया, ‘‘इसलिए प्रत्येक सुबह और शाम तुम दोनो जाओ और श्री गोवर्धननाथजी को दूध चढ़ाओ।’’ उस समय से वे दोनो प्रतिदिन श्रीकृष्णजी के लिए श्री गिरिराज पर्वत के शीर्ष पर दूध लेकर जाती थीं, जो 5236 वर्ष के अंतराल के बाद एक बार पुनः प्रकट हुए थे। (बाद में उनके भक्तों ने उनका नाम श्रीनाथजी, गोवर्धननाथजी, इंद्र दमनजी रखा)।


।।सद्दू पांडे के खिराक में एक गाय आवे की आज्ञा।।

।।सद्दू पांडे की गोशाला में एक गाय लाने का आदेश।।


जब धूमर ने दूध देना बंद कर दिया, तब श्रीनाथजी ने एक अन्य गाय को यहां लाने की व्यवस्था की। उन्होंने सद्दू पांडे से कहा, ‘‘मुझे केवल श्रीनंद राय की गाय का दूध चाहिए। कल तुम्हारे पास एक गाय आएगी और वह भी मेरे नंद वंश की ही है, इसलिए जब तक धूमर पुनः दूध नहीं देती, तब तक तुम मुझे इस गाय का दूध भेजो।’’


।।सद्दू पांडे की खिराक में गाय करवेकी धरमदास को साक्षात आज्ञा।।

।।धरम दास को अपनी गाय को सद्दू पांडे की गोशाला में भेजने का आदेश प्राप्त हुआ।।


धरम दास एक व्रजवासी है, जो जमनावटी गांव में रहता था। वह एक भक्त था तथा चतुरंग का शिष्य था। कुंभनदास उसके भतीजे थे। उसकी एक गाय श्री नंदराय के परिवार से संबद्ध थी। वह अपने झुंड से अलग हो गयी और उनके मुखारविंद पर जाकर उन्हें दुग्ध पान कराने लगी। इसके बाद वह वापस झुंड में नहीं गयी और श्रीजी के निकट बैठ गयी। धरमदास को चिंता हुयी और वे कुंभनदास के साथ उसे देखने गए, जो दस वर्ष के थे। इसके बाद श्री गिरिराजजी में खोजने गए और उसे श्रीनाथजी के निकट बैठा हुआ पाया, परंतु सारे प्रयासों के बावजूद भी वह उनके साथ नहीं गयी। इसके बाद श्रीनाथजी ने उन्हें सीधा आदेश दिया, ‘‘अरे धरम दास इस गाय को सद्दू पांडे को दे दो। मैं इसका दूध पीयुंगा।’’ और कुंभन दास को आदेश दिया, ‘‘अरे कुंभनदास, ‘‘तुम मेरे पास रोज आकर खेला करो।’’ प्रभु के मधुर शब्दों ने उसे उल्लास से भर दिया और वे दोनो अचेतन अवस्था में चले गए तथा जब वे आनंद रुपी चेतना से बाहर निकले तब इन दोनो ने परिक्रमा की एवं श्रीनाथ जी के समक्ष साक्षात दंडवत किया। इन दोनो ने श्रीजी की इच्छा के अनुसार इस दैवीय आदेश का पालन किया।


।।गौडिया माधवानंद प्रति साक्षात आज्ञा।।

।।गौडिया माधवानंद को एक प्रत्यक्ष आदेश प्रदान किया गया।।


गौडिया माधवानंद गिरिराज परिक्रमा के लिए आए। वह सद्दू पांडे के घर के बाहर स्थित एक चबूतरे पर ठहरे। व्रजवासी के साथ उन्हें भी श्रीनाथजी का दर्शन प्राप्त हुआ और वे काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने श्रीनाथजी को पकाए गए अनाज का भोग लगाने की इच्छा प्रकट की। जब उन्होंने भोग को पका कर तैयार कर लिया तब श्रीनाथजी ने उन्हें आदेश दिया, ‘‘मैं अनाज तभी ग्रहण करुंगा, जब आचार्य जी यहां पर आएंगे और मेरे लिए भोजन को पकाएंगे। उस समय तक मैं केवल दूध ग्रहण करुंगा। इसलिए यदि मुझे भोग लगाने की इच्छा रखते हो और मेरा श्रृंगार करना चाहते हो तो मैं तुम्हें इसकी अनुमति दूंगा। सर्वप्रथम जाओ और इस देश की परिक्रमा करो। उस समय तक श्रीआचार्य जी मेरे साथ यहां रहेंगे और एक मंदिर में मेरे एक पट की स्थापना करेंगे। वह तुम्हें मेरी सेवा में रखेंगे और उसके बाद मैं खेलूंगा तथा सभी व्रजवासियों के साथ लीला करुंगा।’’

इस दैवीय आदेश के साथ माधवेंद्रपुरी ने उपयुक्त समय की धैर्य से प्रतीक्षा की। 1472 ईसवी तक श्रीनाथजी ने व्रजवासियों से दूध व दही स्वीकार किया, कुंभनदास के साथ क्रीड़ा की और कुछ व्रजवासियों के घर से माखन चुराने चले गये।


।।एक भवनपुरा के वृजवासी के मन्नत।।

।।भवनपुरा के एक व्रजवासी ने मनौती मांगी (मनौती पूर्ण करने हेतु प्रार्थना)।।


भवनपुरा के एक व्रजवासी की गाय गायब हो गयी, इसलिए उसने श्रीजी से एक मनौती मांगी, ‘‘गाय वन में गायब हो गयी है, जहां पर एक शेर भी रहता है। यदि यह गाय सुरक्षित वापस आ जाती है, तो मैं उसके सारे दूध को देव दमन पर अर्पित कर दूंगा।’’ इसके बाद श्रीजी ने अपनी भुजा को उठाया और गाय को उसके कान से पकड़ा और उसे अन्य गायों के साथ सुरक्षित रख दिया। इसके बाद भवनपुरा अपने सारे दूध को श्रीजी को चढ़ाने लगा। एक बार जब यह क्रीड़ा समाप्त हो गयी तब श्रीजी ने कुंभनदास को आदेश दिया, ‘‘इस गाय को कान से उठा कर सुरक्षित रखने में दर्द हो गया है, क्या तुम इसे दबा कर दर्द से मुक्ति दिला सकते हो।’’

शीध्र ही श्रीनाथजी की लीला में सहायता करने के लिए सभी गायें और व्रजवासी वहां पर उपस्थित हो गए, जिन्होंने श्रीकृष्ण अवतार के समय जन्म लिया था।

श्रीनाथजी ने श्री गिरिराजजी के अनेक मार्गों पर अपनी दैवीय क्रीड़ा को प्रारंभ किया।


।।श्रीनाथजी के रक्षार्थ चार व्यूहन को प्रगट्य।।

।।श्रीनाथजी की चार क्षमताओं का प्रकटीकरण।।


श्री गोवर्धननाथजी की रक्षा के लिए चार शक्तियां भी प्रकट हुयीं। संकर्षण कुंड के श्री संकर्षण देव, गोविंद कुंड के श्री देवजी, दान घाटी के श्री दानीरायजी, श्री कुंड के श्री हरि देवजी। ये चार देव संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्धनात्मक हैं। वे सदैव ही श्रीकृष्ण श्रीनाथजी की सुरक्षा के लिए उपस्थित रहते हैं तथा अन्य वंशावली के भक्तों द्वारा इनकी उपासना की जाती है। इन चार शक्तियों के केंद्र में श्री पुरुषोत्तम रुप श्रीनाथजी निवास करते हैं। उनकी सेवा के लिए केवल आचार्यजी प्रकट होते हैं। केवल श्रीपुरुषोत्तम ही श्रीपुरुषोत्तम के स्वरुप को जान सकते हैं। अर्जुन श्री भगवद्गीता के दशम अध्याय में कहते हैं, ‘‘न तो कोई भगवान और न तो कोई राक्षस आपके अथवा आपके अवतार के विषय में न तो कोई जानकारी प्राप्त कर सकता है और न ही समझ सकता है। केवल आप ही स्वयं के माध्यम से स्वयं को जान सकते हैं।’’


।।श्री आचार्यजी को श्रीनाथजी झारखंड में श्री गिरिराज पधार सेवा प्रगट करवेकी आज्ञा किनी।।

।।श्रीनाथजी ने श्री आचार्यजी को झारखंड में आदेश दिया कि वे गिरिराज आएं और अपनी सेवा प्रदान करें।।


1492 ईसवी में फाल्गुनी सुद 11, (संवत 1549), में श्रीनाथजी ने झारखंड में श्री आचार्यजी को आदेश दिया, ‘‘श्री गोवर्धननाथ के स्वरुप में मैं प्रकट हुआ हूं और गिरिराज के केंद्र में रहता हूं। व्रजवासियों ने एक बार मेरा दर्शन किया और बार-बार मेरे दर्शन की इच्छा प्रकट की, परंतु मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा की कि तुम आओ और मेरी सेवा करो। मेरे श्रीकृष्ण अवतार में सभी व्रजवासियों को शरण में ले जाया गया एवं सेवा में लगाया गया। इसके बाद मैं इन सभी के साथ अपनी लीला करुंगा। हम श्री हरिदास वार्य पर मिलेंगे।

(श्रीकृष्ण ने कहा कि 5236 वर्ष पूर्व के उनके मूल अवतार से कुछ आत्माएं छूट गयीं थीं। ‘‘उनकी तलाश की जानी चाहिए और उन्हें सेवा में लगाया जाना चाहिए।’’ ‘‘मैं उनका संरक्षक बनने के साथ ही साथ सभी मानव जाति को शांति और आनंद प्रदान करता हूं।’’) इस अवधि के दौरान श्रीनाथजी ने श्रीवल्लभ को ब्रम्ह संबंध के साथ उनकी दैवीय आत्मा में जागरण के मंत्र को उपलब्ध कराया, इसलिए उन्हें उनकी दैवीय लीला में वापस स्वीकार किया गया और अंततः गोलोक ले जाया गया।


।।श्री आचार्यजी को व्रज पधारनो तथा श्री विश्राम घाट पर यात्राबंध दूर करनी।।

।।श्री आचार्यजी व्रज पहुंचते हैं तथा श्री विश्राम घाट पर एक चरण को हटाते हैं।।


श्री वल्लभ आचार्य ने श्री गिरिराज जाते समय एक यंत्र बंध (एक नकारात्मक चरण) हटाया, जिसे विश्राम घाट पर एक मुस्लिम शासक ने रख दिया था। मथुरा से वह श्री गिरिराज पर पहुंचे और सद्दू पांडे के घर पर रुक गए। वह उनके घर के बार स्थित चबूतरे पर ठहरे। जहां पर व्रजवासी उनके दर्शन के लिए आने लगे।


।।श्री आचार्यजी महाप्रभु को श्री गिरिराज पधारनो और श्रीनाथजी वाहन प्रगट भए है सो खोजनो।।

।।श्री आचार्यजी श्री गिरिराज पर पहुंचते हैं और श्रीनाथजी को खोजते हैं।।


वहां पर वह गिरिराज से श्री गोवर्धननाथजी की आवाज को सुनते हैं, ‘‘अरे नारो, मेरा दूध लाओ।’’ नारो उत्तर देती है, ‘‘आज हमारे यहां कुछ अतिथि आए हैं।’’ श्रीजी उत्तर देते हैं, ‘‘यह बहुत अच्छी बात है कि अतिथि आए हैं, परंतु मुझे मेरा दूध दो।’’ ‘‘ठीक है, आप इसे अभी चाहते हैं? मैं इसे लेकर आती हूं।’’ और वह एक प्याले में दूध को भर कर श्रीजी के पास ले जाती है।

श्री महाप्रभु दामला से पूछते हैं, ‘‘क्या तुमने मेरे शब्दों को सुना है। दामला कहते हैं कि उन्होंने उनकी बात को सुना है, परंतु वह यह नहीं समझ पाए कि इसमें क्या कहा गया है। इसके बाद श्री आचार्यजी ने कहा कि यह वही आवाज है जिसने उसे यहां पर आने का आदेश दिया था। श्रीनाथजी यहां पर इस पर्वत पर प्रकट हुए हैं। हम सुबह इस पर चढ़ाई करेंगे।

श्रीघ्र ही नारो श्रीनाथजी को दूध चढ़ा कर खाली कटोरे के साथ वापस आयी। श्री वल्लभ आचार्य ने उससे पूछा कि क्या प्याले में कुछ दूध बचा है, क्योंकि उन्हें उसे पीने की इच्छा हो रही है। नारो ने कहा कि कुछ तो बचा है, परंतु उसके घर में काफी दूध है जिसे वह ले सकते हैं। परंतु श्री वल्लभ श्रीनाथजी को अर्पित किए गए दूध के कटोरे में बचे दूध को प्रसाद के तौर पर ग्रहण करने की इच्छा कर रहे थे।

सद्दू पांडे की इच्छा के अनुसार श्री वल्लभ आचार्य ने उन्हें मंत्र के साथ दीक्षा दी और उनकी सेवा को स्वीकार किया। तदुपरांत रात में सद्दू पांडे, माणिक चंद एवं कुछ व्रजवासी श्री वल्लभ आचार्य के पास बैठ गए। श्री महाप्रभुजी ने सद्दू पांडे से पूछा कि श्री देव दमन श्रीगिरिराज जी पर किस प्रकार प्रकट हुए थे, कृपया मुझे इसकी वार्ता को सुनाइये। इसके बाद सद्दू पांडे ने पूरी कथा सुनाई, जिसने श्री महाप्रभुजी के हृदय को दिव्य भाव से भर दिया।


।।श्री आचार्यजी को श्री गिरिराज पे पधारनो और श्रीनाथजी सु मिलवो और प्रगट करवो।।

।।श्री आचार्यजी श्री गिरिराज जी पर गए और श्रीनाथजी से मिल कर उन्हें स्थापित किया।।


अगले दिन काफी जल्द श्रीमहाप्रभुजी एवं व्रजवासियों ने गिरिराज गोवर्धन पर श्रीनाथजी के दर्शन हेतु चढ़ाई की। श्रीनाथजी भी श्री महाप्रभुजी से मिलने के लिए प्रसन्नतापूर्वक प्रकट हो गए।


*Shreeji comes out of His kandra to greet Shri Vallabh*


।।श्रीनाथजी की आज्ञा अनुसार श्रीआचार्यजी पात बिछायके तथा सेवाको प्रकार बांध के पृथ्वी परिक्रमा कू पधारे।।

।।श्रीनाथजी के आदेश के अनुसार श्री आचार्यजी ने पथ सेवा की स्थापना की और परिक्रमा के लिए चले गए।।


श्रीनाथजी ने उन्हें अपना पथ स्थापन करने एवं सेवा प्रारंभ करने का आदेश दिया। पुष्टिमार्ग में सेवा बहुत महत्वपूर्ण होती है। श्रीजी की इच्छा के अनुसार श्री वल्लभ आचार्य ने एक लघु मंदिर का निर्माण कराया एवं इसमें पथ को स्थापित किया तथा सेवा प्रारंभ की।

*Shri Vallabh first builds a small mandir on Girirajji as per Shreeji’s instructions*


अप्सरा कुंड में एक भक्त निवास करते थे, जिन्हें श्री आचार्य जी के आगमन का पता चला। वह उनके दर्शन के लिए गए। श्री महाप्रभुजी ने उन्हें श्रीनाथजी की सेवा प्रारंभ करने के लिए कहा। श्री वल्लभाचार्य ने श्रीकृष्ण के इस रुप का नाम गोपाल दिया, जिसका अर्थ गायों का प्रेमी एवं रक्षक होता है।

श्री वल्लभ आचार्य ने मोर चंद्रिका का मुकुट तैयार किया और रामदास के समक्ष यह प्रदर्शित किया कि किस प्रकार सेवा की जाती है। उन्हें यह बताया कि रोज सुबह गोविंद कुंड जाइए, स्नान कीजिए एवं ऐवा के लिए जल भर कर ले आइए। इसके बाद उन्हें श्रीजी को स्नान कराना होगा और उन्हें वस्त्र पहना कर श्रृंगार के साथ उनकी सेवा करनी होगी, जैसा कि महाप्रभुजी करते हैं। श्रीजी गुंजा चंद्रिका धारण करना पसंद करते हैं। उनके आशीर्वाद से जो कुछ भी चढ़ावा आता है उसका उपयोग ठाकुर जी की भोग सामग्री को खरीदने के लिए कीजिए। आप इससे आजीविका भी चलाइए। बाद में श्री वल्लभ ने सद्दू पांडे व अन्य व्रजवासियों से कहा, ‘‘गोवर्धननाथजी हमारे सर्वस्व हैं, वह हर समय आवश्यक सभी प्रकार की सेवा के लिए तैयार रहते हैं। वह ऐसा सब कुछ करते हैं, जिससे गोपाल को प्रसन्न किया जा सके।’’ इसके बाद वल्लभ अपनी पृथ्वी यात्रा के लिए चले गए।

इस दिन के बाद से श्रीनाथजी ने अनाज एवं अन्य भोग सामग्रियों को स्वीकार करना प्रारंभ किया। श्रीवल्लभ जी के आगमन के पूर्व वह सिर्फ दूध स्वीकार करते थे। श्रीनाथजी ने इसके बाद व्रजवासियों के साथ प्रत्यक्ष संवाद स्थापित करते हुए अपनी लीला एवं नटखटपन से भरे खेल को प्रारंभ किया। वह एक दैवीय संपर्क के भाव से उनके भोजन को खींच कर खा लेते थे।


।।पूरनमल क्षत्री को मंदिर बनवायवे की स्वप्नमें आज्ञा।।

।।पूरनमल को सपने में आदेश मिला कि आइए और मंदिर का निर्माण कराइए।।


1499 ईसवी (संवत 1556) में श्रीनाथजी ने सपने में पूरनमल क्षत्रिय को आदेश दिया कि, ‘‘व्रज मंडल में आओ और मेरे लिए विशाल मंदिर का निर्माण कराओ।’’ इसलिए पूरनमल ने अपनी सारी संपत्ति को बेच दिया और व्रज में श्री गोवर्धन पर्वत पर आए।


।।पूरनमन क्षत्री कासे व्रज आवनो।।

।।पूरनमल क्षत्रिय का व्रज आगमन।।


उन्होंने व्रजवासियों से श्री देव दमन ठाकुर के ठौर-ठिकाने का पता लगाया। पूरनमल श्री गोवर्धननाथजी का दर्शन कर काफी प्रसन्न हुए, उसके बाद वह श्री वल्लभ आचार्य से मिले, उन्हें साष्टांग दंडवत किया एवं उन्हें अपने सपने के विषय में बताया। ‘‘महाराज, श्रीगोवर्धननाथजी की इच्छा है कि श्री गिरिराज जी पर एक विशाल मंदिर का निर्माण हो। उन्होंने मुझे स्वप्न में यह आदेश दिया है, इसलिए मैं अपना सब कुछ बेच कर अपने सारे धन के साथ यहां पर आया हूं, ताकि श्रीजी के आदेश के अनुसार मंदिर का निर्माण कर सकूं।

श्री महा प्रभुजी ने उन्हें मंदिर निर्माण की अनुमति दे दी। इसके बाद पूरनमल ने श्री गिरिराज जी से यह निवेदन किया कि मंदिर के निर्माण में काफी व्यवधान आएगा, इसलिए मुझे आपकी अनुमति की आवश्यकता है। गिरिराज गोवर्धन ने कहा, ‘‘चूंकि श्रीनाथजी मेरे हृदय में रहते हैं। इसलिए खुदाई इत्यादि से संबंधित किसी भी प्रकार के कार्य मुझे कष्ट नहीं देंगे, कृपया आप मंदिर निर्माण के कार्य में आगे बढ़िए और प्रसन्नतापूर्वक इस कार्य को प्रारंभ कीजिए।’’


।।हीरामनि उस्ता कु मंदिर बनायवे अयवेकी स्वप्न में आज्ञा।।

।।हीरामणि को सपने में आदेश प्राप्त हुआ कि आइये और मंदिर का निर्माण कराइए।।


वास्तुविद हीरामणि आगरे में रहते थे। जैसा कि उनके स्वप्न में आदेश मिला और वह व्रज आए एवं वल्लभ आचार्य जी से मिले, ‘‘श्रीनाथजी ने मुझे सपने में गिरिराजजी जाने का आदेश दिया और मंदिर निर्माण करने के लिए कहा है। यदि आप अनुमति दें तो हम नींव के उत्खनन का कार्य तुरंत प्रारंभ कर दें। श्री वल्लभ आचार्य ने उन्हें अनुमति दी और उन्हें यह निर्देश दिया कि वे सर्वप्रथम कागज पर इसकी योजना बनाएं। इसलिए हीरामणि ने बिना किसी शिखर के मंदिर निर्माण का एक खाका तैयार किया। लेकिन जैसे ही उन्होंने इस योजना के खाके को पूरा किया, उस मंदिर का खाका एक शिखर के साथ तैयार हो गया। ऐसा तीन बार हुआ, इसलिए श्री महाप्रभुजी यह समझ गए कि श्रीजी की यह इच्छा है कि वे एक ऐसे मंदिर का निर्माण करें जिस पर एक शिखर बना हो।

उन्होंने दामोदर दास से कहा, ‘‘चूंकि श्रीजी की इच्छा शिखर से युक्त मंदिर में निवास करने की है, इसका तात्पर्य यह है कि वह श्री गोवर्धन पर अनेक वर्षों तक निवास करेंगे। इसके बाद मुगलों का आक्रमण होगा और श्रीजी देश के किसी अन्य भाग में चले जाएंगे और वह वहां पर भी अनेक वर्षों तक रहेंगे तथा उसके बाद वह व्रज वापस आ जाएंगे। इस अवधि में उनके मंदिर का निर्माण पंचरी की तरफ किया जाएगा।

श्री गिरिराज जी पर तीन शिखर हैः आदि शिखर, ब्रम्ह शिखर, देव शिखर। श्रीकृष्ण के रुप में उनके पहले अवतार में उन्होंने आदि शिखर पर लीला की। अब वर्तमान समय में देव शिखर पर दूसरी लीला की जा रही है, अंतिम लीला ब्रम्ह शिखर पर होगी। आदि शिखर एवं देव शिखर भूमि में गुप्त है, केवल ब्रम्ह शिखर का ही प्रत्यक्ष दर्शन संभव है। आप श्री गोवर्धननाथजी हैं, इसलिए आप श्री गिरिराज गोवर्धन पर सदैव ही लीला करते रहिए।’’


।।श्रीजी के नवीन मंदिर को आरंभ।।

।।श्रीजी के नवीन मंदिर के निर्माण का कार्य का प्रारंभ।।


मंदिर की आधारशिला को वर्ष 1499 ईसवी (संवत 1556) में वैशाख सुद 3 रोहिणी नक्षत्र में रखा गया। पूरनमल की पूरी संपत्ति लगभग समाप्त हो गयी। कुछ बची हुयी मुद्रा के साथ पुनः वह दक्षिण में धन कमाने के लिए गए। उन्होंने कुछ बहुमूल्य पत्थरों को खरीदा और उसे बेच कर धन अर्जित किया, ताकि मंदिर का कार्य पूरा किया जा सके। इसे पूर्ण होने में 20 वर्ष लगे।

तब तक श्रीनाथजी एक लघु मंदिर में निवास करते रहे। इन 20 वर्षों तक रामदास चैहान राजपूत ने सेवा की। इस प्रकार 1488 ईसवी से 1519 ईसवी (वि सं 1585 – वि सं 1576) तक श्रीजी इस लघु मंदिर में अपनी लीला करते रहे। श्रीजी ने किसी अन्य भक्त से सेवा को स्वीकार करने से मना कर दिया और 20 वर्षों तक प्रतीक्षा की, जब तक कि पूरनमल ने मंदिर का निर्माण नहीं करा दिया!


।।श्रीजीको नवीन मंदिर में पट उत्सव।।

।।श्रीजी के नवीन मंदिर का पट उत्सव।।


एक बार जब यह नया मंदिर तैयार हो गया, तब श्री महाप्रभु जी देश की परिक्रमा करने के बाद व्रज पहुंचे। श्रीनाथजी अपने नए मंदिर में 1519 ईसवी (संवत 1576), में वैशाख सुद तीज में आखा तीज के अवसर पर विराजमान हुए। इस दिन को श्रीनाथजी का पट उत्सव भी कहा जाता है।

पूरनमल ने इस नए मंदिर में श्रीनाथजी का दर्शन कर बहुत प्रसन्नता का अनुभव किया। श्रीमहाप्रभुजी चाहते थे कि उनकी कुछ इच्छाओं की पूर्ति कर दी जाए। पूरनमल की इच्छा अपने हाथ से गोवर्धननाथजी को अर्गजा इत्र लगाने की थी, इसकी अनुमति प्राप्त होने पर उन्होंने सर्वश्रेष्ठ इत्र खरीदा एवं उसे पूरी प्रसन्नता से श्री ठाकुरजी को लगाया। भरपूर भाव व प्रेम के साथ उन्होंने यह सेवा की। उस दिन श्री वल्लभ आचार्यजी ने वस्त्र और आभूषण के साथ श्रीनाथजी का श्रृंगार किया।

पूरनमल ने पूरी प्रसन्नता के साथ श्री वल्लभ आचार्य जी की भी बहुत उत्तम सेवा की, जिससे वे काफी संतुष्ट हुए और पूरनमल को अपना उपर्णा दे दिया। पूरनमल ने साक्षात् दंडवत किया एवं महाप्रभुजी की अनुमति से अपने गांव अंबालय वापस चले गए।


।।श्रीजीकी सेवा को प्रारंभ।।

।।श्रीजी की सेवा का प्रारंभ।।


श्री आचार्य ने सद्दू पांडे को बुलाया और उनसे श्रीनाथ मंदिर में सेवा का प्रारंभ करने के लिए कहा, जोकि अब तैयार है। ‘‘यह काफी बड़ा है और इसलिए इसे और अधिक सेवकों की आवश्यकता पड़ेगी। तुम एक ब्राम्हण हो और हमारे शास्त्र ऐसा कहते हैं कि ब्राम्हण लोग इस सेवा को करें।’’

सद्दू पांडे ने उत्तर दिया कि वे सरल व्रजवासी हैं और उन्हें सेवा करने का समुचित तरीका नहीं मालूम है। उन्होंने यह सुझाव दिया कि श्री कुंड में एक ब्राम्हण वैष्णव के सेवक हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य सेवा में है। इसलिए श्री वल्लभ आचार्य सहमत हो गए और कुछ बंगाली ब्राम्हणों को सेवा में नियुक्त कर लिया। उन्होंने उन्हें सेवा करने के उचित तरीके की दीक्षा दी। माधवेंद्र पुरी को मुखिया नियुक्त किया गया। कृष्ण दासजी अधिकारी बने, कुंभन दासजी कीर्तनकार बने। श्री महाप्रभुजी ने दैनिक सामग्री के प्रकार एवं मात्रा हेतु नियम बनाया।


।।श्रीनाथजी के लिए श्री आचार्य अपने सुवर्ण के वीते बचवाए और एक गाय मंगवाए।।

।।श्री आचार्यजी ने श्रीनाथजी के लिए एक गाय खरीदने के लिए अपनी सोने की अंगूठी बेच दी।।


यह कथा जारी रही, एक बार श्रीगोवर्धननाथजी ने श्रीवल्लभ आचार्य से एक गाय प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने श्रीजी की इच्छा की पूर्ति के लिए अपनी सोने की अंगूठी बेच दी। चूंकि उन्हें एक गाय को खरीदने के लिए बस एक यही एक उपाय था और श्रीजी ने किसी अन्य से इसे स्वीकार करने से मना कर दिया था। श्री आचार्य ने सद्दू पांडे को बुलाया और उन्हें श्रीनाथजी की इच्छा से अवगत कराया। सद्दू पांडे ने यह निवेदन किया कि ऐसी अनेक गाएं हैं जिन्हें श्रीनाथजी की सेवा में पेश किया जा सकता है, इसके लिए आपने अपनी अंगूठी क्यों बेच दी? परंतु श्री वल्लभ ने इस विचार को अस्वीकृत कर दिया और इस बात पर बल दिया कि श्रीनाथजी केवल इसे ही स्वीकार करेंगे। और इस प्रकार गाय को खरीदा गया जिससे श्रीनाथजी बहुत प्रसन्न हुए। जब व्रजवासियों ने यह सुना कि श्री गोवर्धननाथजी गायों से प्रेम करते हैं, तब सभी आए और गायों को उनके समक्ष भेंट स्वरुप प्रस्तुत किया। श्री वल्लभ आचार्य ने श्रीजी को गोपाल नाम दिया। इस प्रकार श्रीनाथजी की व्रज में भक्तों के साथ अनेक दैवीय लीलाएं जारी रहीं।


।।श्रीनाथजी बेंगालिंकी सेवासो अप्रसन भए और टिंकू निवासवे की आज्ञा किए।।

।।श्रीनाथजी बंगालियों की सेवा से अप्रसन्न हुए और उन्हें हटाने का आदेश दिया।।


माधवेंद्रपुरी श्री वल्लभ आचार्य द्वारा निर्धारित किए गए नियम के अनुसार श्रीजी का नित्य श्रृंगार किया। यद्यपि श्रीजी ने इस सेवा को पसंद नहीं किया, परंतु उन्होंने अपनी अप्रसन्नता को प्रदर्शित नहीं किया, क्योंकि इस सेवा को महाप्रभुजी द्वारा प्रारंभ किया गया था। यह 14 वर्षों तक जारी रहा।

एक दिन सेवकों ने मंदिर में श्रीजी के साथ वृंदा देवी नामक एक देवी की प्रतिमा को रख दिया। श्री गोवर्धननाथजी ने इसे पसंद नहीं किया, इसलिए उन्होंने अवधूत दास को यह आदेश दिया कि वह किशन दास से कहें कि बंगालियों ने मेरे द्रव्य को चुराने का कार्य किया है, इसलिए उन्हें मेरी सेवा से हटा दिया जाए।


एक दिन सेवकों ने मंदिर में श्रीजी के साथ वृंदा देवी नामक एक देवी की प्रतिमा को रख दिया। श्री गोवर्धननाथजी ने इसे पसंद नहीं किया, इसलिए उन्होंने अवधूत दास को यह आदेश दिया कि वह किशन दास से कहें कि बंगालियों ने मेरे द्रव्य को चुराने का कार्य किया है, इसलिए उन्हें मेरी सेवा से हटा दिया जाए।

इन वर्षों में जब श्रीजी यहां पर रहते थे, तब व्रज के लोग काफी भाग्यशाली थे। श्रीनाथजी, जिनकी यहां पर उपासना की जाती थी, एक बेहद सजीव स्वरुप में निवास करते थे और विभिन्न लीलाओं व क्रीड़ाओं के माध्यम से अपने भक्तों के साथ संवाद स्थापित करते थे।

श्रीजी नटखट बालक होने के नाते नारो के साथ खेला करते थे। एक बार उन्होंने अपने स्वरुप को बदल दिया और नारो के घर गए, ‘‘क्या तुम मुझे कुछ दूध दोगी, मैं भूखा हूं।’’ ‘‘नारो श्रीजी के इस स्वरुप को नहीं समझ सकी और कहा कि, ‘‘यदि तुम्हें दूध चाहिए तो तुम्हें इसका भुगतान करना पड़ेगा।’’ ‘‘मेरे पास अभी पैसा नहीं है, परंतु यदि तुम तनिक प्रतीक्षा करो तो मैं तुम्हें कुछ भिन्न तरीके से इसका भुगतान कर सकता हूं।’’ और यह कह कर श्रीजी अपने मंदिर में चले गए और अपने उस सोने के कटोरे के साथ वापस आए जिसका उपयोग उनके भोग के लिए किया जाता था। उन्होंने इसे नारो को दे दिया और काफी प्रसन्नता से दूध पी कर वहां से भाग गए।

बाद में जब नारो के पिता घर आए तब उन्हें सोने के कटोरे को देख कर बहुत आश्चर्य हुआ। नारो ने उन्हें बताया कि किस प्रकार एक छोटा बालक सुबह आया और उसके पास दूध के एवज में भुगतान करने के लिए कोई पैसा नहीं था। यह सुन कर उसके पिता अचम्भित और उत्साहित हो गए, ‘‘तुम बहुत भाग्यशाली हो। श्रीजी स्वयं आए थे और उन्होंने तुम्हें यह दिव्य अनुभूति प्रदान करने के लिए अपने स्वरुप को बदला था।’’ वह मंदिर गए और श्रीजी के कटोरे को वापस कर दिया तथा उन्होंने इस पूरी नाटकीयता को वहां पर उपस्थित सभी लोगों को बताया। उनकी 84 एवं 252 दिव्य आत्माओं के साथ ऐसे दैवीय संपर्क और क्रीड़ा का विवरण 84 वैष्णव एवं 252 वैष्णवों की वार्ता में प्रस्तुत किया गया है।

श्रीजी ने लोगों को यह बताया कि ईश्वर बहुत निकट और बहुत सजग है। ऐसी दैवीय लीला, जोकि श्रीनाथजी के प्रगट्य का एक बेहद अंतरंग भाग है, किसी अन्य धार्मिक साहित्य में नहीं दर्ज है। इन सभी संपर्कों को श्री गोकुलनाथ जी ने श्रीजी वार्ता की पुस्तकों, जिसे 252 वैष्णव की वार्ता, चैरासी वैष्णव की वार्ता कहा जाता है, में प्रलेखित एवं कलमबद्ध किया है।


ये कथाएं मौलिक व शाश्वत श्रीराधाकृष्ण लीला में हमें भक्तों की पहचान के विषय में बताती हैं। तदुपरांत वार्ता हमें उसी समयावधि में श्रीनाथजी और उनके मानव सहचरों, श्री वल्लभ आचार्य एवं श्री गोसाई जी के रुप में लौकिक जन्म के विषय में भी बताती हैं।

श्री वल्लभ आचार्य जी ने समूचे भारत की तीन बार यात्रा की और चैरासी बैठकों को स्थापित किया। ये वे स्थान हैं जहां पर उन्होंने लोगों के लाभ के लिए भागवत कथा का वाचन प्रस्तुत किया और मंदिर में श्रीकृष्ण सेवा को प्रारंभ किया। इसमें इस बात का विवरण प्रस्तुत किया गया है कि किस प्रकार इन दो दिव्य गुरुओं ने दिव्य आत्माओं को खोजा और उन्हें श्रीजी की सेवा की दीक्षा दी। उसमें यह भी बताया गया है कि किस प्रकार ये अंततः श्रीराधाकृष्ण-श्रीनाथजी के साथ एक बार पुनः उनके चिरस्थायी निवास स्थान में विलीन हो गए। इसमें इस बात का विवरण है कि वे एक बार पुनः देवत्व के साथ संबद्ध हो गए। श्री वल्लभाचार्य एवं श्री गोसाई जी ने श्रीकृष्ण के किसी भी स्वरुप के उनके हृदय में सेवा के भाव को स्थापित किया एवं चूंकि भक्त गण श्रीजी के स्वरुप में विलीन हो गए, इसलिए उनके दिव्य गुरु द्वारा जागृति प्रदान की गयी।


श्री महा प्रभुजी को दिया जाने वाला ब्रम्हसंबंध मंत्र


इस दीक्षा मंत्र को श्रीकृष्ण ने स्वयं वल्लभाचार्य को प्रदान किया था और उन्होंने अपने प्रगट होने एवं इसकी आवश्यकता को उनके समक्ष व्याख्याबद्ध किया था।

जबकि गोकुल में वल्लभाचार्य गहन चिंतन की प्रक्रिया में थे कि किस प्रकार लोगों को भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जाए। वह इस बात को लेकर काफी चिंतित थे, तभी मध्य रात्रि में भगवान कृष्ण स्वयं उनके समक्ष श्रीनाथजी के स्वरुप में प्रकट हुए। उन्होंने वल्लभाचार्य को यह बताया कि किस प्रकार लोगों को ब्रम्ह संबंध के माध्यम से पूर्ण समर्पण व सेवा के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए दीक्षित किया जाना चाहिए।


श्रीकृष्ण ने श्रीवल्लभाचार्य को वचन दिया कि वह उन सभी भक्तों की सेवा को स्वीकार करेंगे, जिन्हें ब्रम्ह संबंध की दीक्षा दी जाएगी। श्रीकृष्ण ने उन्हें गड्या मंत्र दिया, जोकि एक पंचाक्षरी मंत्र का एक विवरण है। जिसने श्री वल्लभाचार्य की चिंता का समाधान कर दिया। इसके बाद श्री महाप्रभुजी ने श्रीकृष्णजी को पवित्र (कपास के धागे की माला) का माल्यार्पण किया और उन्हें मिश्री चढ़ाया। इस दिव्य भेंट के बाद श्रीनाथजी विलुप्त हो गए। श्री महाप्रभुजी ने श्री मधुर शतकम् की रचना की, जिसमें उन्होंने श्रीकृष्ण के उनके समक्ष प्रकट होने के तरीके के निमित्त स्वरुप व सौन्दर्य की प्रशंसा की। यह 1492 ईसवी श्रावण शुक्ल गियारस का समय था। इस मांगलिक अवसर को पवित्र एकादशी के रुप में मनाया जाता है। इस दिन को पुष्टि मार्ग के जन्मदिन के रुप में भी जाना जाता है।


*ShreeNathji gives the Brahmsambandh on Pavitra ekadasi*


।।श्री आचार्यजी महाप्रभुनको स्वधाम पधारनो।।

।।श्री आचार्य महाप्रभुजी का अपने शाश्वत धाम में वापस लौटना।।


1531 ईसवी (संवत 1587) में आसाढ़ सुद 3 दोपहर में श्री महाप्रभु श्री काशी स्थित हनुमान घाट से गंगाजी में चले गए, जहां पर उन्होंने पद्मासन किया और गोलोक धाम के लिए कूच कर गए। उनके सबसे बड़े सुपुत्र श्री गोपीनाथजी प्रमुख बन गए एवं 3 वर्षों तक श्रीजी की सेवा की। इसके पूर्व बंगाली ब्राम्हण श्रीजी की सेवा करते थे।


।।श्री पुरुषोत्तम जी स्वधाम पधारे।।

।।श्री पुरुषोत्तम जी की शाश्वत धाम में वापसी।।


श्री गोपीनाथजी के पुत्र श्री पुरुषोत्तमजी श्री गिरिराज केंद्र में गए, जहां पर श्रीनाथजी ने उन्हें पकड़ लिया और उन्हें दैहिक तौर पर इस लीला का आस्वादन कराया।


।।श्री गोपीनाथ जी स्वधाम पधारे।।

।।श्री गोपीनाथ जी की शाश्वत धाम में वापसी।।


अपने पुत्र की मृत्यु से श्री गोपीनाथजी बहुत दुखी हुए, वह श्री जगन्नाथजी चले गए तथा वह श्री बलदेवजी के स्वरुप के साथ विलीन हो गए, जो उनका मूल स्वरुप है।


।।श्री गोसाईजीको गडी बिराजनो और बेंगालिंगको काढ दूजे सेवा में रखनो।।

।।श्री गोसाईजी पीठ पर आसीन हुए एवं अन्य के साथ बंगालियों की सेवा के अधिकार को हस्तगत किया।।


श्री गोसाईजी 1516 ईसवी में चार्नाट में जन्में थे। अपने भाई के साथ विलीन होने के बाद श्री गोपीनाथजी श्री जगन्नाथ देव में गए और मुखिया के रुप में सत्ता को हस्तगत किया। श्रीजी की इच्छा को समझते हुए उन्होंने गूजर ब्राम्हण को नियुक्त किया और मंदिर से बंगालियों को सेवा के कार्य से हटा दिया। रामदास को मुखिया बनाया गया।


।।श्रीजी की आज्ञानुसार माधवेंद्र पुरी मल्यागर चंदन लेवेको दक्षिण चले।।

।।श्रीजी के आदेश के अनुसार माधवेंद्र पुरी मल्यागर चंदन प्राप्त करने के लिए दक्षिण के लिए रवाना हुए।।


श्रीनाथजी को काफी गर्मी महसूस होती थी और वह चंदन लगाना पसंद करते थे। इसलिए उन्होंने माधवेंद्र पुरी को आदेश दिया कि वे मल्यागर चंदन ले कर आएं। ।।पेडे में माधवेंद्र पुरी कू श्री गोपीनाथजी के दर्शन भए।।


।।पेडे में माधवेंद्र पुरी कू श्री गोपीनाथजी के दशर्न भए।।

।।माधवेंद्र पुरी को पेडे में गोपीनाथजी का दर्शन हुआ।।

।।माधवेंद्र पुरी और तैलंग देश को राजा चंदा के भरा लेके श्रीनाथजी को समर्पिवे चले।।


माधवेंद्र पुरी दक्षिण में राजा से मिले जो उनका शिष्य था। राजा ने उन्हें बताया कि उसके पास दो मल्यार चंदन की मूठ है। इसको बनाने की प्रक्रिया के तहत इसके लिए चंदन को सवा मन तेल में गरम किया जाता है। उसके बाद तेल को ठंडा किया जाता है। इसे रखिए और मुझे भी श्रीनाथजी के दर्शन के लिए ले चलिए। इस प्रकार गुरु और शिष्य दोनो अपने हाथ में इसे लेकर दर्शन के लिए चल पड़े।

।।माधवेंद्र पुरी कू श्रीनाथजी के साक्षात दर्शन भए और श्री हिमगोपालजी के सदा सेकवा करबेको परलोक भए।।


शीघ्र ही वे तिरुपति पहुंचे जहां पर उन्होंने पुष्करणी नदी में स्नान किया और श्रीजी का ध्यान लगाया। श्रीनाथजी ने उपवन में दर्शन दिया। इसके बाद माधवेंद्र पुरी ने श्रीनाथजी को चंदन लगाया एवं शुद्ध नारियल गिरी व केले का भोग लगाया।


इस पर श्रीनाथजी ने उनसे कहा कि व्रज हिमाचल प्रदेश के बहुत नजदीक है। इसलिए चंदन को पूरे वर्ष इस्तेमाल करना संभव नहीं है। चंदन केवल ग्रीष्म ऋतु का श्रृंगार है। तुम्हारी इच्छा पूरे 12 माह चंदन सेवा करने की है। दक्षिण में हर समय गर्मी रहती है। वहां मलयाचल पर्वत पर मेरी बैठक है। वहां पर जाओ और पूरे वर्ष चंदन से मेरी सेवा करो। अपने शिष्य को भी अपने साथ ले जाओ। गुरु और शिष्य दोनो चंदन से मेरी नित्य सेवा करो। वहां पर मेरे स्वरुप को हिमगोपाल के नाम से जाना जाता है। मैं वहां पर सदैव चंदन के श्रृंगार में रहता हूं। वहां पर चारों तरफ चंदन के वन हैं। वहां पर इंद्रदेव प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं, इसलिए तुम दोनो वहां जाओ।


व्रज में श्री गोसाईजी प्रतिदिन मेरी सेवा करते हैं। वह वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार, सुगंधि एवं सामग्रियों को पूजन के अनुसार उपयोग में लाते हैं। वह मेरे प्रति बहुत अधिक समर्पित हैं। इतना कह के श्रीनाथजी विलुप्त हो गए और व्रज में अपने गिरिराज पर्वत पर वापस चले गए।


माधवेन्द्र पुरी ने श्रीनाथजी के आदेश के अनुसार कार्य किया। उन्होंने श्री हिमगोपालजी में उनकी सेवा पूरी की। और वहां से परलोक के लिए निकल पड़े।


श्री गोसाईजी ने इस समाचार को 6 माह बाद सुना और इस बात से बहुत दुखी हुए कि माधवेंद्र गिरिराज तक नहीं पहुंच सके। श्रीनाथजी ने यह स्पष्ट किया कि यह सब कुछ उनकी इच्छा के अनुसार घटित हुआ है और उनको इसकी कहानी बताई। इससे गोसाईजी शांत और प्रसन्न हो गए।


।।माधवेंद्र पुरी को जीवन चरित्र।।

।।माधवेंद्र पुरी का जीवन चरित्र।।


माधवेंद्र पुरी तैलंग के एक ब्राम्हण थे। माधव संप्रदाय के आचार्य कृष्ण चैतन्य के शिष्य थे। उन्हें गौड़ प्रदेश जाने और भक्ति का प्रचार करने का आदेश प्राप्त हुआ। माधवेंद्र पुरी एक सन्यासी थे और काशी में रहते थे। उन्होंने महाप्रभुजी के पिता श्रीलक्ष्मण भट्ट जी को यज्ञ पूर्ण करने में सहायता की।

इसके बाद श्री वल्लभ आचार्य ने चार माह तक वेद और शास्त्रों का अध्ययन किया। श्री वल्लभ आचार्य ने उनसे गुरु दक्षिणा मांगने के लिए कहा। उस समय माधवेंद्र पुरी ने वल्लभाचार्य में पार ब्रम्ह का दर्शन किया। इसलिए उन्होंने श्री वल्लभ आचार्य से निवेदन किया कि जब वे श्री गिरिराज पर स्थित मंदिर में श्रीनाथजी का प्रतिष्ठापन करें, तो कृपया मुझे उनकी सेवा में ले लें।

इससे महाप्रभुजी सहमत हो गए और उनसे उस समय व्रज में आने के लिए कहा जब उन्होंने श्रीगोवर्धननाथ के लिए पाट की स्थापना की। उस समय श्रीजी ने इच्छा प्रकट की कि तुम यहां पर सेवा करो।

14 वर्ष के बाद श्री वल्लभ के वरदान के कारण श्रीनाथजी ने माधवेंद्र पुरी, उनके संबंधों एवं बंगालियों की सेवा को स्वीकार किया, परंतु उन्हें महारास सेवा का अधिकार नहीं दिया। श्रीनाथजी ने माधवेंद्र पुरी से कहा कि उनका उद्धार होगा, परंतु श्री गिरिराजजी में केवल श्री गोसाईजी ही उनकी सेवा करेंगे।


।।अष्ट सखा वर्णन।।

।।अष्ट सखा का विवरण।।


जब श्रीगोवर्घन नाथजी गिरिराजजी पर निवास करते थे, तब श्रीगोसाईजी ने उनकी सेवा की थी। जब श्री गोवर्धननाथजी श्री गिरिराज पर प्रकट हुए तब उनके अष्ट सखा ने भी इस पृथ्वी पर जन्म लिया। वे उन सभी लीलाओं का गायन व विवरण प्रस्तुत करते थे, जो श्रीनाथजी के साथ उनके वार्तालाप में घटित होता था। 5236 वर्ष पूर्व प्रारंभिक अवतार में श्री कृष्ण के मूल मित्रों के रुप में अष्ट छाप कवियों का नाम इस प्रकार है-. कृष्ण, अर्जुन, तोक, विशाल, ऋषभ, सुबल, श्री दमाल, भोज स्वामी। ये वही ग्वाल मित्र हैं, जिन्होंने गिरिराज गोवर्धन पर श्रीजी लीला के अंतर्गत बाद में जन्म लिया और ये अष्ट छाप कवि के नाम से जाने गए। सूरदास कृष्ण थे, परमानंद दास टोक थे, कृष्णदास ऋषभ थे, चीतस्वामी सुबल थे, कुंभनदास अर्जुन थे, चतुर्भुजदास विशाल थे, विष्णुदास भोज स्वामी थे तथा गोविंद श्री दमल थे। (इस प्रगट्य वार्ता में, जिसमें से मैंने इस रचना का अनुवाद एवं प्रस्तुतीकरण किया है, व्रजवासियों के साथ श्रीनाथजी की लीला की अनेक कथाएं हैं। मैं केवल उन कुछ कथाओं पर चर्चा करुंगा, जिनकी इस वर्णन एवं व्याख्या में आवश्यकता पड़ेगी।)


श्री वल्लभाचार्य के गोलोक जाने के बाद उनके पुत्र श्री गोसाईजी ने श्रीजी की सेवा की।


श्री गोसाईजी एक दिव्य गुरु थे, जिन्होंने श्रीजी की बहुत प्यार से देख-भाल की।

*Asht sakha kavi sing rachnas as per the guidance of Shri Gusainji*


उनका जन्म 1516 ईसवी में चार्नाट गांव में हुआ था, जो वाराणसी के निकट स्थित एक गांव है। वह ज्योतिष विज्ञान और औषधि विज्ञान के विशेषज्ञ थे। उन्होंने संगीत, नृत्य, श्रृंगार, विभिन्न प्रकार के भोग एवं उत्सवों के अनेक आयोजनों के साथ श्रीनाथजी की भरपूर सेवा भी की।

उन्होंने हवेली संगीत की परंपरा भी प्रारंभ की जो आज भी बरकरार है। सभी अष्ट सखा कवि को एक औपचारिक समूह में संगठित किया गया तथा उन्हें प्रत्यक्ष रुप से श्रीजी की सेवा के लिए प्रस्तुत किया गया। उनके द्वारा रचित अनेक संस्कृत रचनाएं आज भी हवेली में गायी जाती हैं।


*Shri Gusainji was more a sakha then a sevak of ShreeNathji*


उन्होंने रास मंडली की प्रथा का भी शुभारंभ किया, जो श्रीकृष्ण की लीला का मंचन करते हैं। वह बादशाह अकबर के काफी निकट थे। तानसेन, बीरबल, राजा टोडरमल, बाज बहादुर उनके साथ काफी सहजता से संपर्क स्थापित करते थे। 1557 ईसवी तक जब श्री गोसाईजी ने एडेल से जाने का मन बना लिया और गिरिराज गोवर्धन के निकट आ गए, तब अकबर ने उन्हें महावन के निकट भूमि उपलब्ध कराई, ताकि वह अपने श्रीजी के निकट रह सकें। उन्होंने समूचे देश की व्यापक यात्रा की और अनेक शिष्य बनाए। 252 वैष्णव उसमें से कुछ है, जिसमें राजा, मंत्री, अमीर, निर्धन, मुस्लिम, साधु, डाकू सम्मिलित हैं। उन्होंने अपनी सहज उपस्थिति से अपने शिष्यों का उत्थान किया।


श्री गोसाईजी ने अपने शिष्यों एवं स्वयं श्रीनाथजी की इच्छाओं की भी पूर्ति की।


एक वार्ता यह दर्शाती है कि एक बार जब श्री गोसाईजी सन्यास लेने के विषय में सोच रहे थे, तब श्री नवनीत प्रिय जी, श्रीकृष्ण के बाल स्वरुप, इनकी मंशा को जानने के बाद इन्हें यह बताया कि वह भी संन्यास ले रहे हैं तथा अपने सभी वस्त्र को संन्यासियों के समान गेरुए रंग में रंग दिया है। इसे सुन कर श्री गोसाईजी ने सन्यास का विचार त्याग दिया। श्री गोसाईजी की सेवा की अवधि में श्रीजी ने अपने सभी भक्तों के साथ व्यक्तिगत रुप से वार्तालाप स्थापित किया और उन्हें इस पृथ्वी पर प्रत्येक संभव दैवीय आनंद प्रदान किया। उन्होंने एक छोटे बच्चे के समान व्यवहार किया और उन्हें अपने भक्त से की जाने वाली आशाओं के विषय में कहने की आदत थी। वह अपने ग्वालों के साथ खेल खेलना पसंद करते थे तथा उन्होंने अपने भक्तों से अनेक बार भोजन मांग कर खाया।


श्री गोसाईजी को वास्तव में श्रीजी की एक छोटे बच्चे के रुप में देख-भाल करनी पड़ी। वह उनकी सभी भक्तों की आवश्यकताओं का ध्यान रखते थे। इस दैवीय अवधि के दौरान ठाकुरजी श्री राधाकृष्ण ने अपने भक्तों के जीवन को आनंद और सुख से भर दिया। वह एक बहुत नटखट और निर्दोष बालक के रुप में प्रकट हुए तथा उन्होंने अपनी लीला और क्रीड़ा के माधुर्य से लोगों के हृदय एवं अंतरात्मा को भर दिया। यह सुखदायी लीला वहां पर कुछ भाग्यशाली दिव्यात्माओं के लिए ही उपलब्ध थी। इन दिव्यात्माओं को तलाशा गया तथा उसके बाद उन्हें श्रीकृष्ण की सेवा में दीक्षित किया गया।


श्री वल्लभाचार्य एवं श्री गोसाईजी दोनो ने इन दिव्य आत्माओं को एकत्रित किया तथा उन्हें श्रीजी से जोड़ा। ये दोनो उनके मानव सहचर के समान थे, जो श्रीजी के लिए कुछ विशेष कार्य करने के लिए आए थे। इन्होंने ईश्वर एवं मनुष्यों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई और वे दिव्य गुरु के नाम से जाने जाते थे।


जब भी श्रीजी खेलते थे तब उनके अष्ट सखा उनके लिए गाते थे, जबकि ललिता एवं श्यामा मृदंग व बीन बजाती थीं। श्रीजी को अब तक लगभग 24 गांव भेंट स्वरुप प्राप्त हो चुके हैं एवं जो व्रजवासी यहां पर रहते हैं, वे अपने नवजात बछड़ों को श्रीदेव दमन को अर्पित करने के लिए आए।


श्री गोसाईजी ने गुलाल कुंड के निकट सभी गायों के लिए खिरक का निर्माण कराया एवं चार ग्वालों को सेवा के लिए रखा। इसमें कुंभनदास के पुत्र किशनदास, गोपीनाथदास, गोपाल ग्वाल, गंगा ग्वाल सम्मिलित थे। दिन के समय जब श्रीनाथजी गोचारण के लिए जाते थे, तब ग्वालबाल मंडली उनके साथ जाती थी।


।।श्रीनाथजी श्याम डाक पर चाक अरोगे।।

।।श्रीनाथजी श्याम ढाक पर भोग का आनंद उठाते हैं।।


और एक दिन श्रीजी ने गोपालदास को आदेश दिया कि, ‘‘अप्सरा कुंड पर जाओ और गोसाईजी से कहो कि मैं दही भात खाउंगा, मैं यहां श्याम ढाक पर प्रतीक्षा कर रहा हूं। उनसे कहो कि मैं बहुत भूखा हूं और दाल-भात की प्रतीक्षा कर रहा हूं।’’

जब श्री गोसाईजी ने श्रीजी का यह संदेश सुना, तब उन्होंने उपरा से चाक लगाया और श्याम ढाक पर शीघ्रता से जाने के लिए उन्मुख हो गए। श्रीजी ने बलदेवजी एवं उनकी सभी सभा मंडली के साथ इस भोग का आनंद उठाया। इस दिव्य लीला की अनुभूति करते हुए श्री गोसाईजी अपने घर वापस चले गए।


।।श्रीजी, श्री गोसाईजी के घर मथुरा पधारे। श्री गोसाईजी सर्वस्व अर्पण किए, श्रीजी ताहन होरी खेल पीछे गिरिराज पधारे।।

।।श्रीजी मथुरा में श्री गोसाईजी के घर आए। उन्होंने यहां पर होली खेली और गिरिराज वापस चले गए।।


जब श्री गोसाईजी गुजरात के लिए रवाना हुए, तब श्रीनाथजी मथुरा में श्री गोसाईजी के घर गए। उन्होंने श्री गिरधरजी को आदेश दिया, ‘‘मेरी इच्छा है कि मैं मथुरा में तुम्हारे घर आऊं।’’

इस प्रकार एक रथ तैयार किया गया और श्री गोवर्धननाथजी दंडवती शिला पर गिरधरजी के कंधे पर चढ़ कर रथ पर सवार हुए। वह श्री गोसाईजी के घर पहुंचे एवं उसके बाद 1577 ईसवी, फाल्गुन वद 7, गुरुवार को घर में श्रीजी पट का स्थापन किया।

परिवार के सभी सदस्यों ने, साड़ी के अतिरिक्त जिसे वे धारण करती थीं, अपने सभी आभूषणों एवं धन को श्रीजी को समर्पित कर दिया।

केवल कमला बेटीजी ने एक नथ को छिपा लिया और सब कुछ अर्पित कर दिया। श्रीजी ने इस बात को समझ लिया और सावधानी से कहा कि मुझे कमला बेटीजी के नथ के अतिरिक्त सब कुछ प्राप्त हो गया है। जिसे बाद में उन्होंने स्वीकार कर लिया।

श्रीनाथजी होली खेलना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सभी बहू-बेटियों को अपने साथ होली खेलने का आदेश दिया। सभी ने श्रीनाथजी के साथ अकल्पनीय आनंद का अनुभव किया।

।।श्रीजी को गिरिराज पधारवो, तथा श्री गोसाईजी सु मिलवो।।

।।श्रीजी गिरिराज वापस आए और श्री गोसाईजी से मिले।।


इसके बाद श्रीजी ने यह महसूस किया कि श्री गोसाईजी श्री गोवर्धन पर शीघ्र ही पहुंच जाएंगे। उन्होंने गिरधरजी को आदेश दिया, ‘‘श्री गोसाईजी उस समय उदास हो जाएंगे, जब वह गिरिराज गोवर्धन पर मेरा दर्शन नहीं कर पाएंगे। तुम्हें मुझे आज ही वापस ले जाना होगा।’’ श्रीजी उनके रथ में बैठे और उनके आदेश का पालन करते हुए रथ को जहां तक संभव हुआ तेजी से ले गए। ‘‘मैं श्री गिरिराज पर राजभोग एवं शयन भोग दोनो को एक साथ करुंगा।’’

जब वे दंडौती शिला पर पहुंचे, तब श्रीजी ने तुरंत रथ से छलांग लगा दी और श्री गिरधरजी के कंधे पर सवार होकर अपने निज मंदिर में वापस चले गए तथा कंधे से छलांग लगा कर अपनी चरण चैकी में बैठ गए। इस लीला की प्रकृति बहुत अलौकिक थी।

जब श्री गोसाईजी अगली सुबह वापस लौटे और इस लीला के विषय में सुने, तब बहुत आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने श्रीजी के गाल को स्पर्श किया और पूछा, ‘‘बाबा, श्री मथुरा में आपके जाने का क्या कारण था?’’ श्रीजी ने उत्तर दिया, ‘‘इससे मुझे आपके परिवार की बहू बेटियों से मिलने का अपार आनंद प्राप्त हुआ।’’


।।श्रीजी रुप मंजरी के संग चैपड़ खेले।।

।।श्रीजी ने रुप मंजरी के साथ चैपड़ खेला।।


रुप मंजरी एक ग्वाल पुत्री थी, जिसके साथ श्रीजी चार प्रहर के लिए चैपड़ खेलने के लिए गए। वह बीन बहुत अच्छा बजाती थी, जिसे सुन कर श्रीजी काफी आनंदित हुए। रुप नंद दास के साथ काफी मित्रवत थी और वह एक संस्कारिक कन्या थी।

बाद में जब श्रीजी अपने निज मंदिर में वापस गए, तब उनकी आंखें लाल हो गयीं। श्री गोसाईजी ने श्रीजी से पूछा, ‘‘बाबा क्या आप पिछली रात जगे हुए थे?’’

जब श्रीजी ने यह बताया कि वह किस तरह से सारी रात रुप मंजरी से चैपड़ खेलते रहे, तब श्री गोसाईजी को चिंता हुई और उन्होंने श्रीजी से कहा कि आपको कुछ लौकिक व्यक्तियों के साथ इतना श्रम नहीं करना चाहिए। आप बिना श्रम के यहां पर केवल व्रज के भक्तों के साथ क्रीड़ा कीजिए और उस समय से चैपड़ का खेल उनके मंदिर में श्रीजी की सेवा के लिए प्रारंभ किया गया।


।।अकबर बादशाह की बेगम बीबी ताज।।


अकबर बादशाह की पत्नी श्री गोसाईजी की शिष्या थी। इस अवधि के दौरान अकबर सत्ता में आया था। सौभाग्यवश उसके मन में हिन्दू धर्म के प्रति बहुत सम्मान और आदर था। उसने हिन्दू मंदिरों के सभी लूट और विध्वंस पर रोक लगा दी। इस प्रकार बादशाह अकबर के शासन के दौरान समूचे व्रज मंडल में काफी शांति थी। इसके कारण श्री गोसाईजी ने श्रीनाथजी के लिए सुंदर और मंहगी सेवा को संचालित करने में सफलता प्राप्त की। उनके संवाद की अनेक वार्ताएं हैं, जो यह दर्शाती हैं कि वे श्री गोसाईजी के कितने निकट थे।


।।श्री गोसाईजी का मेवाड़ के रास्ता होइ के द्वारका पधारनो और शिहाद नामक स्थल के पधारवे की भविष्यवाणी आज्ञा करी और रानाजी आदि को सेवक करने।।

।।श्री गोसाईजी द्वारका जाते समय सिंहद नामक स्थान से गुजरे और यह भविष्यवाणी की कि श्रीजी भविष्य में यहां पर आएंगे और ठहरेंगे।।


एक बार जब गोसाईजी द्वारका की अपनी यात्रा पर थे, तब उन्होंने मेवाड़, राजस्थान में सिंहद नामक एक सुंदर स्थल को देखा। श्री गोसाईजी वहां पर दो दिनो तक ठहरे। उन्होंने इसके विषय में बाबा हरिवंशजी को बताया, ‘‘भविष्य में श्रीनाथजी यहां पर रहने के लिए आएंगे। जब तक मैं जीवित हूं तब तक श्रीजी गिरिराज गोवर्धन को नहीं छोडेंगे।’’

यह बात यह प्रदर्शित करती है कि किस प्रकार यह सब स्वयं श्रीजी द्वारा नियोजित किया गया था, विशेषकर उस समय जब उन्होंने व्रज छोड़ा और मेवाड़ के लिए रवाना हुए।

वाह्य परिस्थितियां सिर्फ उनकी लीला को पूर्ण करने का एक बहाना मात्र थीं। राजा उदय सिंह स्वर्ण और भूमि के उपहार के साथ उनका दर्शन करने आए। इसके एवज में आशीर्वाद स्वरुप श्री गोसाईजी ने उन्हें कुछ शुद्ध वस्त्र और समाधान प्रदान किया, जिसे स्वयं श्रीजी ने पहना था। बाद में उनकी रानी आयीं, जो राजकुमारी मीरा बाई की पुत्री थीं।

इस रानी की पुत्र वधू अजब कुमारी थी। वह भी आयी और उसने स्वयं श्री गोसाईजी से ब्रम्ह संबंध के स्वरुप में दीक्षा ग्रहण की। उसने उनके वास्तविक स्वरुप का दर्शन किया।

जब वे द्वारका के लिए चले गए तब अजब बहुत उदास हो गयी। तक श्री गोसाईजी ने उसे बताया कि, ‘‘दरअसल मैं स्वयं यहां पर नहीं रह सकता, इसलिए श्रीजी स्वयं यहां पर आए और उन्होंने तुम्हें प्रतिदिन दर्शन दिया।’’


।।श्रीजी को नित्य मेवाड़ पधारवो और अजब कुवारी सौ चैपड़ खेलवो तथा मेवाड़ पधारवे को नियम करवो।।

।।श्रीजी रोज मेवाड़ आते थे और अजब कुमारी के साथ चैपड़ खेलने की अपनी प्रतिबद्धता को पूर्ण करते थे।।


इस वचन के बाद श्रीजी श्री गोवर्धन पर्वत से प्रतिदिन अपनी प्रिय भक्त व मित्र अजब से मिलने मेवाड़ आते थे। उसके साथ चैपड़ (लूडो के समान बोर्ड गेम) खेलने के बाद वह गिरिराज गोवर्धन वापस चले जाते थे। ठाकुरजी की आने-जाने की कठिनाई को महसूस करते हुए अजब ने श्रीजी से यह निवेदन किया कि, ‘‘आपके लिए प्रतिदिन यहां पर आना और जाना काफी थकाने वाली प्रक्रिया है। कृपया आइए और मेवाड़ में ही रहिए, ताकि मैं सदैव ही आप का दर्शन कर सकूं।’’ उस समय श्रीजी ने ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने उससे कहा, ‘‘जब तक यहां पर श्री गोसाईजी हैं, मैं गिरिराज जी नहीं छोड़ुंगा। परंतु उनके गोलोक जाने के बाद मैं यहां पर आउंगा और अनेक वर्षों तक रहूंगा। उसके बाद जब श्री गोसाईजी का पुनर्जन्म होगा, तब मैं व्रज में गिरिराज गोवर्धन पर वापस चला जाउंगा और वहां पर अनेक वर्षों तक क्रीड़ा करता रहूंगा।’’ इस प्रकार यह कह कर श्रीजी गिरिराज गोवर्धन के लिए प्रस्थान कर गए। श्री विठ्ठलजी को गोसाईजी के नाम से भी जाना जाता है।

।।श्रीनाथजी मेवाड़ पधारवे के सुधी कर एक असुर को श्री गिरिराज ते उठाए देवसे की प्रेरणा किनी।।


(यह वार्ता नाथद्वारा की श्रीनाथजी की यात्रा से संबद्ध अध्याय में जारी है) (इस विषय को व्रज भाषा की मूल कृति श्रीनाथजी प्रगट्य वार्ता से अनुदित किया गया है। केवल इस वर्णन के लिए प्रासंगिक अध्यायों को यहां पर लिया गया है)

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