श्रीजी, गिरिराज गोवर्धन क्षेत्र में स्थित मथुरा के व्रज क्षेत्र में निवास करते हैं।. उनका मुखारविंद मंदिर गिरिराजजी के तलहटी पर स्थित है। गिरिराज जी पर्वत उनके प्रागत्य का स्थान है।
यह मुखारविंद एक गोवर्धन शिला है, जो श्रृंगार स्थली के नाम से भी जानी जाती है। वल्लभ संप्रदाय के अनुसार यह गिरिराज गोवर्धन का मुखारविंद है। यहां पर प्रत्येक वर्ष अन्नकूट पूजन का आयोजन किया जाता है। यहां पर प्रतिदिन सैकड़ों भक्त आते हैं एवं दुग्ध व पुष्प इत्यादि पदार्थों को अर्पित कर पूजन करते हैं। अनेक भक्त इस स्थान से गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा भी प्रारंभ करते हैं।.
यह स्थल दैवीय शक्ति एवं ऊर्जा से परिपूर्ण होने के कारण बेहद जीवंत है।
श्रीनाथजी नाथद्वारा मंदिर में संध्या आरती के पश्चात वह सायं दर्शन देने के लिए श्री गोवर्धन पर स्थित मुखारविंद मंदिर में प्रकट होते हैं। इस अवधि के मध्य उनकी उपस्थिति बहुत जीवंत होती है तथा यहां आने वाले श्रद्धालु भक्त इस जीवंतता का अनुभव करते हैं। यहां पर श्रृंगार के पूर्ण हो जाने पर छायांकन की अनुमति नहीं दी जाती है। इसके पहले छायांकन पर प्रतिबंध नहीं रहता है।
संध्या समय प्रतिदिन श्रीजी के मुखारविंद का अलंकरण किया जाता है एवं उसका विधिवत पूजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां पर उनकी उपस्थिति सजीव रहती है। श्रीजी प्रत्येक वर्ष छः माह तक यहां पर शयन करते हैं। (वसंत पंचमी से दशहरा तक)। कहना न होगा कि यहां पर भक्ति भाव की महत्ता है, अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए यह पर्वत का शिलाखंड मात्र है।
वैसे भी श्रीनाथजी अपने मूल निवास-स्थान को पसंद करते हैं। इस प्रकार इसकी पूर्ण संभावना रहती है कि वे व्रज में अपने पर्याप्त रिक्त समय को व्ययतीत करते हैं। वे व्रज से प्रेम करते हैं एवं वहां से बाहर जाने पर उसके स्मरण में व्याकुल हो उठते हैं।
जतिपुरा गिरिराज गोवर्धन के पश्चिम में स्थित है, जिसका मौलिक नाम यतिपुरा था। यद्यपि यह एक निर्जन स्थल था, परंतु श्री वल्लभ आचार्य गिरिराजजी के इस ओर रहना पसंद किया, क्योंकि उन्हें श्रीजी की सेवा के लिए इस तरफ से ऊपर चढ़ना सरल प्रतीत हुआ था। साधु का एक अन्य नाम ‘यति’ है एवं श्री वल्लभ के दर्शन के इच्छुक व्यक्ति को यहां पर भेजा जाता है। लोगों ने शीघ्र ही इस स्थान को ‘यति’ का निवास-स्थल कहना प्रारंभ कर दिया, इस कारण इस स्थान का नाम जतिपुरा पड़ा। व्रज भाषा में ‘य’ को ‘ज’ कहते हैं।
१४ वां पुष्टि मार्ग बैठकजी मुखारविंद के सम्मुख स्थित है। इसी स्थान से श्री वल्लभ ने श्री गिरिराजजी को भागवतजी कथा सुनाई थी।
श्रीजी मुखारविंद की स्थापना कब और कैसे हुई, यहाँ के सेवक लोग बताने में असमर्थ हैं। मुखारविंद के अतिरिक्त श्री गोसाईंजी का तुलसी कियारा भी है। श्री गोसाईंजी ने यहाँ से श्री गोविंद स्वामी के साथ नित्य लीला में प्रवेश किया, जो उनके स्मृति पटल पर अंकित हो गया।
यहां से कुछ दूरी पर दंडवती शिला स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जब श्रीनाथजी ने मेवाड़ छोड़ा था, तब यह छः फीट ऊंची थी। गिरिराज गोवर्धन को पुलस्त्य मुनि द्वारा दिए गए शाप के कारण इसका आकार प्रत्येक दिन कम होता जा रहा है।(इससे संबद्ध व्रत की चर्चा दूसरे अध्याय में की गयी है)। यह दंडवती शिला भूमि में समा गयी है, जिस कारण से इसके आस-पास की भूमि का दर्शन के लिए उत्खनन किया गया है।
यहां पर महाप्रभुजी का तुलसी कियारा स्थित है। यह उनके निकुंज में भावात्मक प्रवेश का प्रतिनिधित्व करता है।
दंडवत शिला के सामने श्री मथुरेशजीका मंदिर था, जो गिरधर निवास के नाम से जाना जाता है। श्री मथुरेशजी अब कोटा में विराजते है।
यहां पर श्री गोसाईंजी की बैठकजी है और वे जब भी श्रीनाथजी की सेवा के लिए आते थे, वह यहां पर भगवद् परायण भी करते थे।
श्री गोसाईंजी की बैठकजी के निकट श्री गिरधारीजी की बैठकजी है,जहां पर वह भगवद् परायण करते थे। श्रीनाथजी ने उन्हें यह आदेश दिया कि वह अपने भाई के सात स्वरुप का निर्माण करें एवं उन सभी को कथा के लिए बैठाएं।
दंडवती शिला के सामने एक बड़ा दरवाजा है। इसके पास गोकुलनाथजी का मंदिर है। प्रत्येक वर्ष जब वह गोकुल से श्री गोवर्धन पर पूजन के लिए आते थे, तब वह यहां पर रहते थे।
श्री मदन मोहनजी का मंदिर श्री महाप्रभुजी की बैठक के पीछे स्थित है।
इसके निकट गोवर्धननाथजी एवं श्री चंद्रमाजी का मंदिर भी है।
श्रीनाथजी का मूल मंदिर गिरिराज गोवर्धन के शीर्ष पर स्थित है। मूल रुप से इसका निर्माण महान भक्त पूरनमल ने कराया था, जिन्हें स्वयं श्रीजी ने व्यक्तिगत रुप से अपने मंदिर का निर्माण कराने का आदेश दिया था। उनके मंदिर के निकट पत्थरों का ढेर है, जो गिरिराज गोवर्धन पर उनके प्रागत्य स्थल का प्रतीक है।.
दूसरी तरफ अन्योर में गिरिराज गोवर्धन के पूर्व में सड्डू पांडे का घर है।. श्रीजी सड्डू पांडे की बेटी नरो के साथ ही साथ अन्य व्रजवासी के साथ क्रीड़ा करने के लिए इस ओर से आते थे।
श्री कृष्ण एक मात्र ऐसे अवतार हैं, जिन्होंने मानव जाति को आवश्यकता के अनुसार पृथ्वी पर प्रकट होने का वचन दिया था। इसके पश्चात श्री राधा ने भी वचन दिया था कि श्री कृष्ण परिस्थिति के अनुसार जब कभी भी जिस किसी भी स्वरुप में प्रकट होंगे, वह सदैव ही उनकी संगिनी के रुप में इस धरती पर आएंगी।
अपने उपासित सभी स्वरुपों को श्रीनाथजी अपने आप में समाहित किए हुए हैं। श्री राधाकृष्ण द्वारा अपने भौतिक स्वरुप को त्याग कर चले जाने के बाद (लगभग 5229 वर्ष पूर्व {2017 मे), ढेर सारे परिवर्तन प्रकाश में आए, परंतु पवित्र भूमि व्रज मंडल को उन परवर्ती संतों ने पुनर्स्थापित किया जो मूल स्वरुप के संदेश वाहक माने जाते थे। वे दिव्य लीला को प्रारंभ करने के लिए वापस लौटे और उन्होंने श्री राधाकृष्ण द्वारा स्थापित परंपरा की निरंतरता को जारी रखा।
विशेष स्थलों एवं लीला स्थलियों को इन दिव्य आत्माओं द्वारा चिन्हित किया गया था, विशेषकर उस समय जब वे पूर्ण समाधि अवस्था में होते थे, तथा जब वे लीलाओं के इस दिव्य परिमंडल में प्रवेश करते थे। व्रज की संपूर्ण भूमि दिव्य प्रेम के स्तर पर श्री राधाकृष्ण एवं गोपियों की लीलाओं के कारण जीवंत बनी हुयी है। इसके विषय में ऐसी मान्यता है कि यह दिव्य जीवंतता के स्तर पर सतत् रुप से हमेशा बनी रहेगी।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण लीलाओं में से एक गोवर्धन लीला है। यह वह पवित्र स्थल है, जहां से श्रीनाथजी प्रकट हुए थे। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि श्री कृष्ण की आत्मा की पूर्णता केवल श्री राधा के साथ पूर्ण हुयी थी। श्री कृष्ण ,राधा एवं श्याम के रुप में वाह्य भौतिक स्वरुप में प्रकट हुए थे।
यह संपूर्णता कालांतर में श्रीनाथजी के स्वरुप में प्रकट हुयी। इन दोनो आत्माओं का पूर्ण विलय श्रीनाथजी में पाया गया है। यही कारण है कि आज वह धरती पर भगवान श्रीकृष्ण के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं जागृत स्वरुप में स्वीकार किए जाते हैं। श्रीराधा एवं श्रीकृष्ण श्रीनाथजी के आराध्य में पूरी तरह से उपस्थित हैं। श्रीराधाकृष्ण के निकट आने का इच्छुक भक्त श्श्रीनाथजी की सेवा कर इस दिशा में तीव्रतम परिणाम प्राप्त कर सकता है।
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