श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गर्व गल जाने के कारण देवराज इन्द्र देवताओं के साथ उस पर्वत पर आये और एकान्त में श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनसे बोले।।१।।
इन्द्र ने कहा- आप देवताओं के भी देवता, सर्वसमर्थ, पूर्णपरमेश्वर, पुराण पुरुष, पुरषोत्तमोत्तम, प्रकृति से परे तथा पवरात्पर श्रीहरि हैं। स्वदर्ग के स्वावमी जगत्पाते! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। धर्म, गो तथा वेदकी रक्षा करने के लिये दस अवतार धारण करने वाले भगवान आप ही हैं इस समय भी आप परिपूर्णतम देवता कंसादी दैत्यराजों के विनाशके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं।
आप की माया से जिसकी चित्तवृत्ति मोदित है, जो मदसे उन्मत्त और अवहेलना का पात्र है, वही मैं आपको अपराधी इन्द्र हॅू।
द्युपते! जैसे पिता पुत्र के अपराध को क्षमा कर देता है, उसी प्रकार आप मुझ अपराधी को क्षमा करें। देवेश्वर ! जगन्निवास ! मुझ पर प्रसन्नर होइये । गोवर्धन को उठाने वाले आप गोविन्द को नमस्कार है। गोकुल निवासी गोपाल को नमस्कार है। गोपालों के पति, गोपीजनो के भर्ता और गिरिराज कें उद्वर्ता को नमस्कार है ।
करुणाकी निधि तथा जगत् के विधाता, विश्वरमंडलकारी तथा जगत के निवासस्थान आप परमात्मा को प्रणाम है।
जो विश्व मोहन तथा करोडो़ं कामदेवों के भी मनको मथ देने वाले हैं, उन वृषभानुनिन्दनी कें स्वामी नन्द कुलदीपक परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है।
असंख्य ब्रम्हाण्डो के पति, गोलोक धाम के अधिपति एवं बलराम के साथ रहनेवाले आप साक्षात भगवान श्रीकृष्ण को बारंबार नमस्कार है, नमस्कार है।। २-५।।
श्रीनारदजी कहते है- इन्द्र द्वारा किये गये इस स्त्रोत्र का जो प्रात:काल उठकर पाठ करेगा, उसे सब प्रकार की सिद्वयां सुलभ होंगी और उसे किसी संकट से भय नहीं होगा। इस प्रकार भगवान श्रीहिरकी स्तुति करके देवराज इन्द्र ने हाथ जोड़कर समस्त देवताओं के साथ उन्हें प्रणाम किया, इसके बाद क्षीरसागर से उत्पन्न हुई सुरिभ गौ ने उस सुरम्य गोवधर्न पवर्तपर आकर अपनी दुग्धधारा से गोपेश्वर श्रीकृष्णको स्नान कराया। फिर मत्त गजराज ऐरावत ने गड़जल से भरी हुई चार सूँड़ोंद्वारा भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक किया।
राजन् ! फिर हर्षोल्लास हुए सम्पुर्ण देवता, गन्धर्व और किन्नर ऋषियों को साथ ले वेद मंत्रो के उच्चारण पूर्वक पुष्यवर्षा करते हुए श्रीहिर की स्तुति करने लगे।। ६-१०।।
श्रीजन, श्रीकृष्ण का अभिषेक सम्पन्न हो जाने पर वह महान पर्वत गोवर्धन हर्ष एवं आनन्द से द्रवीभूत होकर सब ओर बहने लगा।
तब भगवानने प्रसन्नन होकर उसके ऊपर अपना हस्त कमल रखा।
नरेश्वर ! उस पर्वत पर भगवान के हाथ का वह चिन्ह् आज भी दुष्टि गोचर होता है। वह परम पवित्र तीर्थ हो गया, जो मनुष्यो के पापों का नाश करने वाला है वही चरण चिन्हि भी है।
मैथिल ! उसे भी परम तीर्थ समझो। जहॉं हस्त चिन्हे है, वहीं उतना ही बड़ा चरण चिन्ह भी हुआ।
मैथिल ! उसी स्थान पर सुरभि देवी के चरण चिन्ह भी बन गये।
मिथिलेश्वर ! श्रीकृष्ण के स्नान के निमित्त जो आकाश गंगा का जल गिरा, उससे वहीं मानसी गंगा प्रकट हो गयीं, जो सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली हैं।
नरेश्वर ! सुरभि की दुग्ध धाराओं से गोविन्द़ ने जो स्नान किया उससे उस पर्वत पर गोविन्द कुण्ड़ प्रकट हो गया, जो बड़े बड़े पापों को हर लेने वाला परम पावन तीर्थ है। कभी कभी उस तीर्थ के जल में दूध का सा स्वाद प्रकट होता है उसमें स्नान करके मनुष्य साक्षात गोविन्द के धाम को प्राप्त होता है।
इस प्रकार वहॉं श्रीहरि की परिक्रमा करके, उन्हें प्रणामपूर्वक बलि (पूजोपहार) समर्पित करने के पश्चात, इन्द्र आदि देवता जय जयकार पूर्वक पुष्प बरसाते हुए बड़े सुख से स्वर्ग लोक को लौट गये।
राजेन्द्र ! जो श्रीकृष्णाभिषेक की इस कथा को सुनता है, वह दस अश्वमेध यग्यों के अवभृथ स्नान से अधिक पुण्य फल को पाता है। फिर वह परम विधाता परमेश्वार श्रीकृष्ण के परमपद को प्राप्त होता है।। ११-१९।।
Mansi Ganga today
The milk that flowed from Surbhi cow which bathed Govind formed the Govind Kund.
The abhishek Jal that flowed from alokik Gajraj Airavat trunks is known as the Airawat kund today
Indr maan bhung mandir, Shri Govardhan
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