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श्रीनाथजी नाथद्वारा हवेली की आठ झांकियां (दर्शन):

प्रत्येक दर्शन भक्तों की जयजयकारमें खुलता है :

‘‘गोवर्धननाथ की जय,

कृष्ण कन्हैया लाल की जय,

बांके बिहारी की जय,

सांवरिया सेठ की जय,

द्वारकाधीश की जय,

श्रीनाथजी बाबा की जय,

श्यामसुंदर यमुने महारानी की जय,

मोर मुकुट बंसी वाले की जय,

वल्लभदेश की जय,

गिरिराज धारण की जय,

बोल श्री राधेराधा रानी की जय,

बरसाने वाली की जय;

आज के आनंद की जय

जय हो जय हो जय हो..’’


दर्शन से संबद्ध विवरण व भाव:


श्रीनाथजी का स्वरुप, जो गिरिराज गोवर्धन पर प्रकट हुआ और अब नाथद्वारा में हैं, लालिमा युक्त काले पत्थर की प्रतिमा के स्वरुप में है। इन प्रतिमा की ऊंचाई लगभग 4 फीट है और उनका बायां हाथ ऊपर की ओर उठा हुआ है। ठीक उसी प्रकार जैसे वे गोवर्धन पर्वत पर प्रकट हुए थे और उनकी सीधे हथेली एक मुट्ठी के आकार में कमर पर है।

श्रीनाथजी यहां पर जीवंत स्वरूप में अपनी हवेली में रहते हैं, इसलिए उनकी सेवा बहुत ही सजीव तरीके से होती है। ऐसा अनुमान है कि वह सदैव अपने बाल स्वरुप में यहाँ उपस्थित रहते हैं।

श्रीजी के निज मंदिर के उपर एक खपरैल है, जिस पर धजाजी लहराती है, और यहाँ सुदर्शन चक्र विराजमान है।


श्रीजी ने मजाक में मुझसे कई बार कहा,

‘‘देखो मैं कितना निर्धन हूं। मेरे पास तो सिर्फ एक झोपड़ी ही है और शेष सब तिलकायत एवं भक्त लोग ले जाते हैं।’’


ठीक उसी प्रकार जैसे हम एक नन्हें बालक की देख रेख करते हैं, उनकी सेवा पूर्ण शुद्ध भाव से की जाती है एवं सभी शुद्ध सामग्रि का उपयोग होता है।

श्रीनाथजी की सेवा बेहद सावधानीपूर्वक की जाती है, ताकि वे जिस अत्यधिक शुद्ध ऊर्जा के साथ यहां पर उपस्थित हैं उसमें किसी भी प्रकार का व्यवधान न उत्पन्न हो।


श्रीनाथजी की ‘सेवा’ की जाती है, जिसे ‘पूजा’ नहीं कहा जा सकता।ये इस भाव से की श्रीनाथजी तो पूर्णता जीवंत यहाँ विराजमान हैं, उनकी सेवा होती है, पूजा, अर्चना तो प्रतिमा या छवि की करी जाती है।


श्रीवल्लभाचार्य ने नंदालय के भाव से 8 समां की सेवा का प्रारंभ किया, इस भाव से की पूर्ववर्ती युग में श्रीकृष्ण के रुप में अवतार लिया था।

उनके दूसरे पुत्र श्री गुसाँई विठ्ठलनाथजी ने भोग एवं श्रृंगार की समुचित व विस्तृत सेवा का प्रारंभ किया, जिसका आज भी ठीक उसी प्रकार पालन किया जाता है, जैसा कि लगभग ६०० वर्ष पूर्व होता था।


उत्सव और उनके अनुशतहान के तरीके में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। सैक्ड़ो वर्ष पूर्व श्रीगुसाँई जी ने जिस तरह से श्रीनगर करा था, श्रीनाथजी ठीक उसी प्रकार के आभूषणों व वस्त्रों को धारण आज भी करते हैं, । श्रीनाथजी के सभी भोग को विभिन्न मौसम और दिन के अनुसार तैयार किया जाता है।


श्रीजी के लिए कई प्रकार के भोजन तैयार होते है तथा उनके निज मंदिर में भोग लगता है। हर प्रकार के सूखे फल और मेवा, विभिन्न प्रकार की मंहगी जड़ी-बूटियों से युक्त सभी परंपरागत खाद्य पदार्थ मौसम के अनुसार भोग में धरे जाते हैं। उनके भोजन में केवल काली मिर्च और सेंधा नमक का इस्तेमाल होता है। मिष्टान्न के निर्माण में अत्यधिक शक्कर का प्रयोग होता है।


जैसा कि वे कभी-कभी मजाक में कहते हैं,

‘‘मैं बहुत अधिक मीठा खाता हूं, फिर भी मुझे मधुमेह नहीं है, हा हा हा।’’


ग्रीष्म काल के दौरान उन्हें चंदन और गुलाब से युक्त जल अर्पित किया जाता है, जबकि सर्दियों में इस जल में केसर मिलाया जाता है।


श्रीजी जब कभी भी हमें चाय पीते हुए देखते थे, तो मजाक में कहते थे,

‘‘तुम लोग तो काली चाय पीते हो, लेकिन मैं तो केवल केसर युक्त दूध पीता हूं। मेरे जल में केसर और चंदन भी मिला होता है।’’

श्रीजी के लिए भोजन तैयार करने हेतु परंपरागत तरीका अपनाया जाता है। उनके लिए जो भोग में शुद्ध सामग्रि का सलीके से उपयोग किया जाता है। श्रीनाथजी जब भोजन करते हैं, उन्हें देखने की अनुमति किसी को भी नहीं होती।

श्रीनाथ जी कहते हैं,

‘‘मुझे जो भी भोग लगता है, मैं उसे सिर्फ सूंघता हूं। कभी-कभी लड्डू और पान का बीड़ा खोल लेता हूं। छप्पन भोग तो ये लोग दरअसल अपने लिए बनाते हैं। हा हा हा। मैं अपनी झारी से कभी-कभार कुछ जल पी लेता हूं।’’


श्रीजी का श्रृंगार बहुत कलात्मक, सुंदर होता है। अलौकिक होता है। जिसके लिए हर प्रकार के आभूषण की व्यवस्था होती है।

प्रति दिन के फूल श्रीजी के विभिन्न उद्यानों से प्रत्येक सुबह लाया जाता है।

श्रीजी की विभिन्न प्रकार की माला तय्यार करने के लिए विशेष कक्ष है, जहाँ तरह तरह के सुगंधित पुष्प का उपयोग किया जाता है। श्रृंगार केवल तिलकायतजी या नियुक्त करे गए मुखियाजी द्वारा किया जाता है। जिस समय श्रीजी का श्रृंगार हो रहा होता है, उन्हें देखने की अनुमति किसी को भी नहीं होती।


श्रीजी ने मुझसे शिकायत करते हुए कहा,

‘‘कभी-कभी जब वे मुझे तैयार करते हैं और मैं बहुत अधिक एकाग्र नहीं होता, तब हिलने के कारण वस्त्र अथवा आभूषण गिर जाते हैं। आखिर मैं कब तक खड़ा रह सकता हूं?’’




वे चाहते हैं कि मैं लगातार स्थिर मुद्रा में खड़ा रहूं, विशेषकर जब वे मुझे दर्शन के लिए तैयार कर रहे होते हैं। वे मुझे कहते हैं कि मैं सावधान मुद्रा में खड़ा रहं, क्योंकि भक्त गण दर्शन के लिए आएंगे। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर थक जाता हूं। आखिर मैं क्या करुं?’’


श्रीजी नटखट हैं, यद्यपि उन्होंने प्रत्यक्ष संवाद स्थापित करना बंद कर दिया है, कभी-कभी वह अपने मंदिर में खेल लीला करते हैं। ऐसे कई अवसर आएं हैं जब उन्होंने कुछ निश्चित आभूषणों अथवा वस्त्रों को स्वीकार करने से मना कर दिया है।

यदि वह अपने श्रृंगार अथवा अपने वस्त्र को 3 बार फेंक देते हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि श्रीजी को यह पसंद नहीं है। यही कारण है कि उससे मिलता-जुलता एक जोड़ा सदैव तैयार रखा जाता है, जिसे श्रीनाथजी के लिए उपयोग में लाया जाता है।

श्रीजी के लिए नित्य नए वस्त्र प्रयोग किए जाते हैं। उन्हें जो वस्त्र एक बार पहनाया जाता है, वह दोहराते नहीं हैं। दर्ज़ीखाने में दर्जियों की पूरी टीम है,जो लगातार श्रीजी के वस्त्रों की सिलाई करती है।

अन्य हिंदू मंदिरों के विपरीत यहां पर श्रीजी का पूरे दिन दर्शन करने की अनुमति नहीं है। चूंकि श्रीजी यहां पर एक लघु शिशु के ‘जीवंत स्वरुप’ में रहते हैं, उनके सभी दर्शन को इसके अनुसार निर्धारित किया जाता है। सुबह के समय सो के उठने के समय से लेकर रात में शयन तक कुल आठ झांकियां भक्तों के लिए उपलब्ध होती हैं।


इन अलोकिक़ ठाकुरजी की झाँकी को मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती, शयन कहा जाता है।


उनके सभी दर्शन कुछ क्षणों के लिए उपलब्ध होते है। भाव यह होता है की एक बालक होने के कारण उन्हें खड़े होने में थकान महसूस होगी और परिश्रम भी हो सकता है। इसलिए लघु अवधि के लिए दर्शन उपलब्ध कराया जाता है।

इस व्यवस्था में एक सेवा का भाव है कि यदि एक एक नन्हें से बालक निद्रा से जागे है, उसे भोजन देना चाहिए, उसे नहला-धुला कर तैयार करना भी आवश्यक है, ताकि वह अपनी लीला के लिए तैयार हो सके।

उन्हें समुचित भोजन अर्पण होना चाहिए, वह थकान भी महसूस कर सकते हैं, इसलिए दोपहर में विश्राम भी होना चाहिए, दोपहर जागने के बाद का नाश्ता देना भी ज़रूरी है।

इसके बाद उनकी आरती होती है, फिर रात्रिकालीन भोजन उपलब्ध करते हैं, एवं उनके वस्त्र व श्रृंगार को हल्का कर उनसे सोने के लिए निवेदनहोता है।

प्रत्येक दर्शन का एक विशेष भाव एवं अर्थ है। (इस पर विस्तार से चर्चा बाद में होगी)। क्योंकि प्रत्येक दर्शन अपने आप में महत्वपूर्ण है, इसलिए सबसे आदर्श अवस्था यह है कि जब आप नाथद्वारा में हों तब सभी 8 दर्शनो को पूर्णता से करें। इससे आपको श्रीजी के साथ निकटता स्थापित करने का पर्याप्त अनुभव और लाभ प्राप्त हो सकेगा।

प्रत्येक दर्शन का समय प्रायः निर्धारित होता है। इसमें समय और मौसम के अनुसार 20 से 30 मिनट का आगे-पीछे हो सकता है।

नित्य दर्शन के समय को गेट पर लगाए गए ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया जाता है और इसकी सूचना इलेक्ट्राॅनिक बोर्ड पर भी प्रदर्शित की जाती है। जब अधिक भीड़ होती है और कुछ पर्वों पर दो दर्शनो को एक साथ मिश्रित कर दिया जाता है। तब दर्शन को एक लंबी अवधि के लिए खुला रखते हैं, ताकि सभी श्रद्धालु भक्त ठाकुरजी की झलक प्राप्त कर सकें।


गोवर्धन पर्वत, श्रीजी का मूल प्रागत्य स्थल, में 8 दरवाजे हैं। प्रत्येक द्वार श्रीनाथजी के एक अष्ट सखा का स्थान है।

अष्ट सखा श्रीनाथजी के 8 कवि मित्र थे, जो शास्त्रीय भाव में विभिन्न भजन लिखते और गाते थे। ये सारी रचनाएं श्रीजी की प्रशंसा में रची गयी हैं और भिन्न भाव और खेल लीला को अभिव्यक्त करती हैं।

इन्हें मौसम के अनुसार, समय और भाव के अनुसार गाया जाता है। अष्टचाप कवियों ने ठाकुरजी की सभी संभावित लीलाओं एवं क्रीड़ाओं के विषय में लिखा है। उन्होंने उनके विभिन्न स्वरुपों अर्थात् दिन, रात, मौसम और त्योहार के अनुसार विभिन्न समयों को निर्धारित किया है।

इन्हें विशेष दर्शन, पर्व तथा दिन के समय के अनुसार प्रत्येक दर्शन के साथ नाथद्वारा में आज भी प्रयुक्त किया जाता है।



मंगला - दिन का प्रथम दर्शन



श्री नवनीत प्रियाजी के भाव से सेवा की जाती है। इनका स्थान सुरभि कुंड के ऊपर श्याम तमाल के नीचे गिरिराज गोवर्धन पर है। ऐसी मान्यता है कि नंदालय (मथुरा) में उनके सभी सखा और गोपी जन दर्शन के लिए आएंगे।

श्री परमानंद दास कवि की रचनाएं (कविताएं) इस दर्शन के समय गायी जाती हैं।

श्रीजी कभी नाथद्वारा में हमें बताते हैं, ‘‘तुम सभी लोग उस पुराने संगीत को सुनते हो वह म्यूजिक प्लेयर में बजाया जाता है, मेरे पास तो सजीव संगीतज्ञ हैं जो मेरे लिए सदैव ही शुद्ध संगीत प्रस्तुत करते हैं।’’


श्रीजी को रोज़ सुबह शंखनाद से जगाया जाता है।

इस समय जब श्रीजी तुरंत जागे होते हैं, तो वे भारी आभूषण धारण नहीं करे होते हैं।

यही एक मात्र दर्शन है जब पीठिकाजी के दर्शन भी होते है। इसके अतिरिक्त आप श्रीजी के दाहिने हाथ का भी दर्शन कर सकते हैं। वास्तव में यह दर्शन एकमात्र ऐसा दर्शन है, जिसमें श्रीजी पूरी तरह से साक्षात् उपस्थित होते हैं।

दर्शन का समय मौसम पर निर्भर करता है और यह लगभग 45 मिनट के लिए खुला होता है।

इस दर्शन में आरती भी की जाती है।

आरती 7 पूर्ण चक्र और सात अर्ध चक्र के साथ सात वाट की बाती से की जाती है।

भक्त इस दर्शन का भरपूर आनंद उठाते हैं और पूरा सभागार उनके जयजयकार से गूंज जाता है।

दर्शन का समय मौसम पर निर्भर करता है।

गरमी रितु में दर्शन विलंब से खुलता है। भाव यह है की गरमी में श्रीजी लंबे समय तक क्रीड़ा करते हैं तथा देर से सोते हैं और इस कारण से उन्हें देरी से जगाया जाता है; तथा उनका श्रृंगार भी हल्का होता है। वह एक हल्के अध्बंध में दर्शन देते हैं। उनके हाथ में बांसुरी नहीं दी जाती, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि यदि श्रीजी बांसुरी बजाने लगे, तो सेवकों का ध्यान भंग हो सकता है।

सर्दियों में वे जल्दी सो जाते हैं,इसलिए मंगल दर्शन सुबह जल्द खुलता है।। ठंड ना लगे, इसलिए उन्हें पूरी तरह रजाई से ढक दिया जाता है, और सिर्फ श्रीनाथजी के मुखारविंद का दर्शन होता है। गर्माहटके लिए उनके सामने एक सिगड़ी जलाई जाती है। दूध व मिश्री, मक्खन, दुग्ध और शीरा का मौसम के अनुसार भोग के रुप में अर्पण करा जाता है।

नाथद्वारा में अक्सर श्रीजी हमें बताते हैं, ’‘सुबह मंगल भोग वाला शीरा मुझे बहुत पसंद है।’’

श्रीजी मंगल भोग शीरा को बहुत पसंद करते हैं। उन्होंने नाथद्वारा में मुझे एक बार उस समय बताया था, जब हम लोग मंगल भोग प्रसाद ग्रहण कर रहे थे।

जय श्री राधाकृष्ण।

जय श्रीजी, जय महागुरुश्री!



श्रृंगार - दिन का दूसरा दर्शन



इस दर्शन में श्री गोकुलचंद्रमाजी के भाव के साथ सेवा होती है। उनका स्थान मानसी गंगा पर, पीपल के वृक्ष के नीचे, गिरिराज गोवर्धन पर स्थित है।

इस दर्शन में कवि श्री नंद दास के कीर्तन और भजन गए जाते है।

मंगला के एक घंटे के बाद श्रृंगार दर्शन होता है। श्रीजी को भिन्न मौसम व पर्वों के अनुसार परिधान पहनाया जाता है। लगभग 500 वर्ष पूर्व श्री गुसाँई जी ने उन सभी प्रकार के वस्त्रों को निर्धारित किया था, जिसे दिन, मौसम, उत्सव के अनुसार श्रीजी धारण करते हैं, और इस परंपरा का पालन आज भी किया जाता है। जो वस्त्र वे एक बार पहन लेते हैं, उन्हें दोबारा नहीं पहनाया जाता।

श्रीजी को सुगंधित पुष्पों की एक माला पहनाई जाती है। अब उनकी बांसुरी को दो छड़ी के साथ अर्पण करते है। गुलाबी कमल अथवा अन्य मौसमी पुष्प भी उनकी कमर पर अलंकृत करे जाते है। उनके श्रृंगार पूर्ण होने पर मुखियाजी श्रीजी को एक स्वर्णिम दर्पण दिखाते हैं, ताकि श्रीजी स्वयं के श्रृंगार और परिधान से संतुष्ट हो सकें।


सूखे फल और विभींन मिठाई का भोग लगाया जाता है।

वो पल जब श्रीजी स्वयं को दर्पण में देखते हैं, उस दृश्य को गंवाना नहीं चाहिए, क्योंकि उस समय वे वहां पर ज़रूर उपस्थित होते हैं। यह अद्भुत अलोकिक़ दृश्य होता है।


श्रीजी स्वयं को मेरे समक्ष एक छोटे बच्चे के रुप में प्रस्तुत करते हैं।

कहते हैं, “मेरे पास एक सोने का दर्पण भी है, जिसे मेरे तैयार होने और वस्त्र धारण करने के बाद मेरा मुखिया दिखाता है।’’


मैं तो बस इस दिव्य दृश्य को देखती हूँ और स्वयं को सौभाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे यहां पर आने का अवसर प्रदान किया गया है।


भाव में मुझे श्रीजी ऐसे लगते हैं जैसे की वे दोनो हाथों को अपने कमर पर रखें हैं और मेरी तरफ पूरी लंबाई में खड़े होकर संकेत कर रहे हैं.. जैसे वह मुझसे कुछ कह रहे हों,


"मैं अच्छा दिखता हूँ ना? मैंने नयी वाह-वाह पहनी है। अब मैं खेलने जाता हूँ".

"मेरे सोने के फूमते भी हैं, मैं कभी वोह भी पहनता हूँ”.


ऐसे मौक़े पर मुझे यह भाव होता है की मैं उन्हें गोद में उठा लूँ और कहूँ, ‘‘आप सर्वश्रेष्ठ हैं श्रीजी और हम सब आपसे बेहद प्रेम करते हैं।’’



ग्वाल - दिन का तीसरा दर्शन



इस दर्शन में श्री द्वारकानाथजी के भाव से सेवा की जाती है। उनका स्थान कदंब खंडि में, श्री गोवर्धन के इरावत कुंड के ऊपर स्थित है।

इस समय कवि श्री गोविंद स्वामी के कीर्तन व भजन गए जाते है।

यह दर्शन वह समय होता है जब श्रीजी अपनी गोमाता को चराने के लिए ले जाते हैं। गोशाला का मुखिया श्रीजी को यह सूचित करने के लिए आता है कि उनकी सभी गाय ठीक और प्रसन्न हैं। इस झांकी में बीड़ाजी (पान का तिकोना बीड़ा) और झारीजी दोनो को अर्पित किया जाता है। तुलसी दल को उनके चरण में अर्पण होती है। श्रीजी को बुरी नजर न लगे इसलिए धूप और धूनी करी जाती है। इसके बाद दो वाट की बाती के साथ आरती होती है।

रबड़ी, खीर, दूध इत्यादि का भोग लगाया जाता है।

यह दर्शन सामान्य रुप से उत्सव के दौरान नहीं खोला जाता है और भीतर ही हो जाता है।



राजभोग – चौथा दर्शन



यह दिन का चौथा दर्शन है। इस दर्शन में स्वयं श्रीनाथजी के भाव के साथ सेवा होती है। उनका निवास स्थान गिरिराज गोवर्धन में सद्दू पांडे के घर के नीम के वृक्ष के नीचे अन्योर में स्थित है।

इस दर्शन में कवि श्री कुंभन दासजी के कीर्तन एवं भजन गए जाते है।


यह सर्वाधिक भव्य दर्शन है।

यह दर्शन के खुलने के पहले आप सेवक की उस पुकार को सुन सकते हैं, जिसमें वह श्रीजी की माला के लिए पुकारता है। वह इस भाव से है की जब श्रीजी श्रीगोवर्धन में निवास करते हैं तब पुजारी उनकी माला को तेज स्वर में पुकार कर मंगवाते हैं, क्योंकि श्रीजी का उद्यान वहां से कुछ दूरी पर स्थित था ।

दिनचर्या के रुप में इसे दर्शन के खुलने का एक संकेत माना जाता है। सभी दर्शनो की अपेक्षा यह दर्शन लंबे समय के लिए खुला रहता है।


श्रीनाथजी की माला को मंगाने के बाद भगवान शिवजी को श्रीनाथजी के दर्शन के लिए बुलाया जाता है। जब श्रीनाथजी नाथद्वारा आए थे, तब भगवान शिव भी नाथद्वारा के गिरिराजजी पर बनास नदी के निकट एक मंदिर में प्रतिष्ठित हुए थे।

इस राजभोग दर्शन में ऐसी मान्यता है कि साक्षात शिवजी श्रीजी के सामने के गोल अर्ध चक्राकार में विद्यमान हैं। वे डोलती बारी में श्रीनाथजी का दर्शन करते हैं। यही कारण है कि इस दर्शन के दौरान कोई भी इस चक्र के बीच पैर नहीं रखता।


इस झांकी में श्रीजी अपने कमल एवं दो नयी मालाओं के साथ दर्शन देते हैं।

पान के दो नए बीड़ाजी, श्रीजी की लड्डू और उनके वेणु यानी बांसुरी के साथ झारीजी भी अर्पण करी जाती है, और साथ ही दो चांदी के छड़ व कमल (उनकी कमर पर पुष्प) भी अर्पित किए जाते हैं।

श्रीजी के पूर्ण तैयार होने पर उन्हें दर्पण दिखाया जाता है।

मोरछड़ी एक तरफ से घुमाई जाती है।

इस दर्शन में आरती भी की जाती है।

श्रीजी को बुरी नजरों से बचाने के लिए सेवकों को दो सिक्के दिए जाते हैं।

आरती पूरी होते ही पर्दे को कुछ पल के लिए बंद कर दिया जाता है और एक मालानिकल लेते हैं। इसके बाद काफी देर तक के लिए दर्शन खुला रहता है।

यहां पर सभी प्रकार के भोजन का भोग लगाया जाता है, जो संपूर्ण भोजन के समकक्ष होता है। श्रीजी के भोजन में चीनी अधिक मात्रा में मिलायी जाती है और मिर्च का बिलकुल भी उपयोग नहीं किया जाता।

उनके जल में सदैव ही गुलाब, चंदन अथवा कुछ केसर मिलाया जाता है। वह सादा जल नहीं पसंद करते हैं।

जब श्रीजी अच्छी मनःस्थिति में होते हैं, तब वह अपनी खान-पान संबंधी आदतों के बारे में मुझे बताते हैं।

वह यह बताते हैं कि वह केसर के साथ दूध को कैसे पसंद करते हैं। ऐसा कई बार घटित हुआ है, जब हम गुरुश्री के कार्यालय में चाय पी रहे होते हैं।

मैं अचानक श्रीजी की हल्की मधुर आवाज को सुनती हूं,

‘‘तुम क्या पी रही हो?

मैं उत्तर देती हूं, ‘‘श्रीजी, इसे चाय कहते हैं।’’

श्रीजी, ‘‘अच्छा यह चाय है? मैं चाय नहीं पीता। मैं केवल केसर मिश्रित दूध पीता हूं। मैं जल भी केसर वाला ही पीता हूं।’’


इस दर्शन के बाद, श्रीजी की हवेली दोपहर तक के लिए बंद कर दी जाती है, क्योंकि यह उनके विश्राम का समय है।

अधिकांश सेवक भी विश्राम के लिए चले जाते हैं, क्योंकि सुबह जल्दी उठ कर आते हैं।


लगभग 3 घंटे के बाद एक बार पुनः शंखनाद सुनाई पड़ता है।

इस दौरान हालांकि हवेली बंद नहीं होती हैं, परंतु हवेली में किसी के प्रवेश की अनुमति नहीं होती है, क्योंकि श्रीजी की एकाग्रता भंग ना हो।



उत्थापन - पांचवां दर्शन



लगभग 3 घंटे के बाद एक बार पुनः शंखनाद को सुना जा सकता है।

यह दोपहर बाद के चार दर्शनो में से पहला है।

इस दर्शन में श्री मथुरेश जी के भाव में सेवा होती है। उनका स्थान गिरिराज जी में चंद्र सरोवर के ऊपर सघन कंदरा, परसोली में स्थित है।

इस दर्शन में श्री सूरदास का कीर्तन एवं भजन गाया जाता है।

मंगला के समान भक्त गेट के बाहर एकत्रित होते हैं और द्वार के खुलने की प्रतीक्षा करते हैं।

श्रीजी वीणा की ध्वनि से जागते हैं।

इस दर्शन का समय प्रायः दोपहर बाद 3.30 से 4.15 तक रहता है।

यह दर्शन लघु अवधि के लिए उपलब्ध होता है।

कई बार श्रीजी इस दर्शन के दौरान निद्रालु दिखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, अभी भी नींद में हैं। इस समय पूरी हवेली बहुत शांत और सुकूनदायी महसूस होती है।

श्रीजी के वस्त्र इस समय हल्के हो जाते हैं। इस समय के दर्शन में कोई बीड़ाजी, छड़ीजी, बांसुरी अथवा कमल नहीं होता है।

यमुने महारानीजी के भाव से दो झारीजी जल अर्पण होता है।

इस समय कोई आरती नहीं होती।

फल एवं दुग्ध उत्पादों का भोग धरते है।



भोग - छठा दर्शन



ये दर्शन श्री गोकुलनाथजी के भाव से होते हैं। इनका स्थान गोवर्धन पर्वत पर आवली वृक्ष के नीचे रुद्र कुंड के ऊपर नवा कुंड के निकट स्थित है।

इस दर्शन में श्री चतुर्भुज दास के कीर्तन व भजन होते हैं।

दर्शन का समय उत्थापन के एक घंटे बाद होता है।

गर्मियों के दौरान सुगंधि से युक्त फौव्वारों को शीतलता प्रदान करने के लिए लगाया जाता है और सर्दियों में कोयले की सिगड़ी को ठाकुरजी से कुछ दूरी पर रखते है, ताकि उन्हें गर्माहट उपलब्ध कराई जा सके। इस दर्शन में पुष्प श्रृंगार अथवा पुष्प बंगला का उपयोग किया जाता है।

बँटाजी को झारीजी एवं दो बीड़ाजी के साथ अर्पित किया जाता है।

श्रीजी दो सुगंधित फूलों की माला धारण करते हैं। इस समय उनकी बांसुरी और छड़ी जी अर्पण होती हैं।

घेरदार, औपचारिक वस्त्र, में ‘छड़ीदार’ एक तरफ़ खड़े रहते हैं। वह श्रीजी के संतरी हैं, जो सोने का कड़ा पहनते हैं, और सोना या चांदी की छड़ी अपने साथ रखते हैं। उनका पग, कमरपट्टा, दुपट्टा श्रीजी के वस्त्र के साथ मेल खाता है।

एक मोरछड़ी श्रीजी के चारों तरफ घुमाई जाती है।

इस दर्शन में कोई आरती नहीं होती।

इस अवसर पर मुख्य रुप से फल, थोर अथवा कुछ हल्के अल्पाहार का भोग लगाया जाता है।



सन्ध्या आरती - सातवां दर्शन



यह दर्शन श्री विठ्ठलनाथजी के भाव का प्रतिनिधित्व करता है। उनका स्थान अप्सरा कुंड पर है, जो गोवर्धन पर्वत पर श्याम टमाल के नीचे है। इस अवसर पर श्री चित्त स्वामी के कीर्तन एवं भजन का गायन प्रस्तुत किया जाता है।

यह दर्शन भोग दर्शन के तुरंत बाद होता है। श्रीजी गोचारण और क्रीड़ा से वापस घर आते हैं। मां यशोदा अपने पुत्र के लिए आरती करती हैं, जो इस दर्शन का एक भाव है। सोने की तय्यारी से श्रृंगार और वस्त्र हल्के हो जाते हैं।

बँटाजी,झारीजी और पांच बीड़ाजी अर्पण करे जाते है।

श्रीजी फूलों की दो मोटी माला धारण करते हैं एवं उन्हें बांसुरी व छड़ी दी जाती है।

एक मोरछड़ी एक तरफ से घुमाया जाता है।

इस समय आरती भी की जाती है।

यह दर्शन दिन की समाप्ति का संकेत है। इस अवसर पर आरती की जाती है।

सुदर्शन चक्र को भोग लगाया जाता है। धजाजी को समेट कर रात्रि विश्राम के लिए रखा जाता है।


जय श्री राधाकृष्ण।

जय श्री, जय महागुरुश्री!



शयन - आठवां दर्शन



यह दिन का आठवां और अंतिम दर्शन है। दर्शन का यह भाव श्री मदन मोहनजी का है। उनका स्थान गिरिराजजी में बिलचू कुंड के ऊपर कदम्ब वृक्ष के नीचे श्याम तमाल पर स्थित है।

इस अवसर पर श्री कृष्ण दास के कीर्तनों एवं भजनों का गायन होता है।


ये दर्शन सदैव ही नाथद्वारा में नहीं होते हैं।

दशहरा से रामनवमी तक नाथद्वारा में शयन दर्शन होते है,

रामनवमी से दशहरा तक शयन दर्शन गिरिराज जी के मुखारविंद जतीपुरा में होते हैं।


दर्शन का प्रारंभ ‘रसोइया बोली’ के बाद होता है।

सेवक हवेली के मुंडेर पर श्रीजी के मुख्य रसोइए को अगले दिन सुबह जल्दी आने के लिए याद दिलाने जाता है; ये उस भाव से है की पहले जैसा गोवर्धन पर्वत पर होता रहा है।।

दर्शन का प्रारंभ नगाड़ों की गूंज से होता है। लोरी के स्वरुप में भजन गया जाता है। वीना की ध्वनि गूँजती है, श्रीजी को उनका वेणु रात्रि के लिए अर्पण होती है।

उनके स्वर्ण बिस्तर को सलीके से तैयार करते हैं। ऐसी मान्यता है कि श्रीराधाजी उनसे मिलने रात में आती हैं। इसलिए उनके वस्त्र और आभूषण को भी तैयार रखा जाता है।

श्रीजी दो सूँगांधित पुष्प माला धारण करते हैं। उन्हें बांसुरी और कमल अर्पण होता है। छड़ी नहीं दी जाती।

पान बीड़ाजी एवं झारीजी को तैयार रखा जाता है।

मोरछड़ीजी को एक तरफ से घुमाया जाता है।

एक सेवक दर्शन के अंतिम समय तक, एक मशाल के साथ श्रीजी के मुख्य मंदिर के बाहर खड़ा होता है।


मुखियाजी श्रीजी को सात बार पान प्रस्तुत करते हैं। एक सेवक लगातार फर्श को साफ करता है, श्रेजी के पान आरोगने के भाव से।

रात में भोग लगाया जाता है। जल को भरा जाता है। लड्डू और पान की पत्तियों को रखा जाता है। यह उक्त दिन का अंतिम दर्शन है, जिसके बाद श्रीजी अगली सुबह के लिए मुक्त हो जाते हैं।


‘डोलटी बारी’ से लकड़ी के प्लेटफार्म्स को हटा देते है।

‘सिंह पोल’ के द्वारों को खुला रखते हैं।

कल सुबह मंगला तक के लिए, हवेली में शांति पूर्ण वातावरण होता है, जब फिर एक बार शंखनाद की गूँज से श्रीजी के जागने का संकेत दिया जाता है।


पूर्ण नाथद्वारा शहर शांत हो जाता है, सेवक और वैष्णव सभी, आराम करने चले जाते हैं, गलियाँ सुनसान हो जाती हैं।जो अगले दिन सुबह ३।३.३० बजे से फिर चहल पहल और श्रीनाथजी की जय जय कार की गूँज से चहकने लगता है।


श्रीनाथजी कई सकड़ों वर्षों से हमें दर्शन देने खड़े रहते हैं, और वह भी बिना किसी अवकाश और बिना अपनी दिनचर्या में किसी प्रकार का परिवर्तन किए हुए।

हम अनेक जन्म चक्रों की प्रक्रिया से गुजर चुके हैं, परंतु श्रीजी ठाकुरजी बिना कोई शिकायत करे या हमें उनके श्रम का अहसास दिलाए, शांतिपूर्वक दिव्यता के साथ खड़े रहते हैं और दर्शन देने के अपने कर्म को पूर्ण करते हैं।


इसी भाव को लेकर जब हम चर्चा करते हैं, श्रीनाथजी प्रभु का आभास होता है, और उनके शब्द गूँजते हैं,

श्रीजी, ‘‘मेरे पास यहाँ पर सोने का पलंग है, परंतु वहां पर कौन सोता है। हा हा हा। मैं तो यहाँ से भाग जाता हूँ।

पूरे दिन मुझे दर्शन देने के लिए खड़ा रखते हैं, लेकिन किसी में भाव तो है ही नहीं। कोई कभी यह नहीं महसूस करता कि श्रीजी को भी कभी अवकाश उपलब्ध होना चाहिए। तुम सब लोग विश्रामवकाश पर जाते हो, क्या मुझे भी अवकाश का आनंद नहीं मिलना चाहिए?’’


हमारा प्रेम स्वीकार करें प्रभु श्रीजी!

मेरे महागुरुश्री, श्रीनाथजी की जय हो!

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