SHREE MATHURANATH JI PRABHU (Shri Mathureshji)
Presently Residing in Kota (Rajasthan)
Paat Utsav celebrated on Phalgun Sud 7
Mukhya Dwar is at Chandra Sarovar
Shree MathuraNathji is a chaar bhuja dhari, dark Form of Shree Krishn who emerged from Shri Yamunaji as a 100 feet tall Swarup.
Shree Mathureshji holds a Shankh (conch), Chakra (discus), Gada (Mace), and Padma (Lotus) in his four arms.
This Swarup of Shree Krishn is when He becomes a young gwal who takes His Gaumata for Gocharan and steals makhan from the gopis, The ‘Gocharan Leela’.
This Divy Swarup was found by Shri Vallabh Achary at Gokul, on Shri Yamunaji Tat.
As he stood there with his disciple Shri Padmanabh das they heard a sound sound from Yamunaji. Shree MathuraNath ji Appeared in a huge Form of nearly 100 feet and He gave hukum to Shri VallabhAchary to perform His seva.
Shri Mahaprabhuji requested Shree MathuraNathji to take a smaller Swarup so that seva would be possible.
Shri Padmanabhdas did seva and when he passed away this Form was given to Shri Gusainji who later gave it to his son Shri Giridhar ji; who then passed it on to his son Shri Gopinathji.
Shree MathuraNathji, Pratham Nidhi Swarup of Pushti Marg is in seva at Kota, Rajasthan.There are Swarups of of 8 gopas and gopis engraved in His Peethika.
Also known as Shree Mathuradheesh ji.
वल्लभ के सप्त उपपीठों में प्रथम स्थान कोटा के मथुरेश जी का है | कोटा के पाटनपोल में भगवान मथुराधीश जी का मंदिर/(Mathuradheesh Mandir Kota Rajasthan) है , इसी कारण यह नगर वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख तीर्थ है | मंदिर एवं उसके आस-पास के क्षेत्र की स्थिति श्री नाथ द्वारा की प्रतिकृति प्रतीत होती है |श्री मथुराधीश प्रभु का प्राकट्य मथुरा जिले के ग्राम करणावल में फाल्गुन शुक्ल एकादशी संवत 1559 विक्रमी के दिन संध्या के समय हुआ था | महाप्रभु वल्लभाचार्य जी यमुना नदी के किनारे उस दिन संध्या समय संध्योवासन कर रहे थे | तभी यमुना का एक किनारा टूटा और उसमें से सात ताड़ के वृक्षों की लम्बाई का एक चतुर्भुज स्वरुप प्रकट हुआ | महाप्रभु जी ने उस स्वरुप के दर्शन कर विनती की कि इतने बड़े स्वरुप की सेवा कैसे होगी | इतने में 27 अंगुल मात्र के होकर श्री महाप्रभु, वल्लभाचार्य जी की गोद में विराज गये इसके पश्चात् महाप्रभु जी के उस स्वरुप को वल्लभाचार्य जी ने एक शिष्य श्री पद्यनाभ दास जी को सेवा करने हेतु दे दिया |
कुछ वर्षों तक सेवा करने के पश्चात् वृद्धावस्था होने के कारण श्री मथुराधीश जी को पद्यनाभ दास जी ने महाप्रभु जी के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ जी को पधरा दिया | श्री विट्ठलनाथ जी के सात पुत्र थे | उनमें ज्येष्ठ पुत्र श्री गिरधर जी को श्री मथुराधीश प्रभु को बंटवारे में दे दिया |
संवत 1795 में कोटा के महाराज दुर्जनशाल जी ने प्रभु को कोटा पधराया, कोटा नगर में पाटन पोल द्वार के पास प्रभु का रथ रुक गया तो तत्कालीन आचार्य गोस्वामी श्री गोपीनाथ जी ने आज्ञा दी कि प्रभु की यहीं विराजने की इच्छा है | तब कोटा राज्य के दीवान द्वारकादास जी ने अपनी हवेली को गोस्वामी जी के सुपुर्द कर दी | गोस्वामी जी ने उसी हवेली में कुछ फेर बदल कराकर प्रभु को विराजमान किया तब से अभी तक इसी हवेली में विराजमान है | यहाँ वल्लभ कुल सम्प्रदाय की रीत के अनुसार सेवा होती है |
Jai Shree RadhaKrishn
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